"निरस्त्र / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=अज्ञेय | |रचनाकार=अज्ञेय | ||
− | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय | + | |संग्रह=कितनी नावों में कितनी बार / अज्ञेय; सुनहरे शैवाल / अज्ञेय |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
14:45, 17 दिसम्बर 2011 के समय का अवतरण
कुहरा था,
सागर पर सन्नाटा था:
पंछी चुप थे।
महाराशि से कटा हुआ
थोड़ा-सा जल
बन्दी हो
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
निश्चल था—
पारदर्श।
प्रस्तर-चुम्बी
बहुरंगी
उद्भिज-समूह के बीच
मुझे सहसा दीखा
केंकड़ा एक:
आँखें ठण्डी
निष्प्रभ
निष्कौतूहल
निर्निमेष।
जाने
मुझ में कौतुक जागा
या उस प्रसृत सन्नाटे में
अपना रहस्य यों खोल
आँख-भर तक लेने का साहस;
मैंने पूछा: क्यों जी,
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
मैं करता हूँ प्यार किसी को—
तो चौंकोगे?
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
औचक?
उस उदासीन ने
सुना नहीं:
आँखों में
वही बुझा सूनापन जमा रहा।
ठण्डे नीले लोहू में
दौड़ी नहीं
सनसनी कोई।
पर अलक्ष्य गति से वह
कोई लीक पकड़
धीरे-धीरे
पत्थर की ओट
किसी कोटर में
सरक गया।
यों मैं
अपने रहस्य के साथ
रह गया
सन्नाटे से घिरा
अकेला
अप्रस्तुत
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र
निष्कवच,
वध्य।