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"वादे की रात मरहबा, आमदे - यार मेहरबाँ / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर

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याद सी आके रह गयीं दिल को कई कहानियाँ।
 
याद सी आके रह गयीं दिल को कई कहानियाँ।
  
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छेड़ के दास्ताने-ग़म, अहले-वतन के दरम्याँ
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हम अभी बीच में ही थे और बदल गयी जवाँ।
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अपनी ग़ज़ल में हम जिसे कहते रहे हैं बारहा
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वो तेरी दास्ताँ कहाँ वो तो है ज़ेबे-दास्ताँ।
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कोई न कोई बात है, उसके सुकूते-यास में
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भूल गया है सब गिले, आज तो इश्के़-बदगु़मा।
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रात कमाल कर गयीं, आलमे-कर्बो-दर्द में
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दिल को मेरे सुला गयीं तेरी नज़र की लोरियाँ।
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सरहदे-ग़ैब तक तुझे, साफ़ मिलेंगे नक़्शे-पा
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पूँछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिये कहाँ-कहाँ।
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कहते हैं मेरी मौत पर उसको भी छीन ही लिया
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इश्क़ को मुद्दतों के बाद एक मिला था तर्जुमाँ<ref>कहने वाला</ref>।
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रंग जमा के उठ गयी कितने तमद्दुनो की बज़्म
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याद नहीं ज़मीन को, भूल चुका है आसमा
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आर्ज़ियत<ref>क्षणभंगुरता</ref> का सोज भी देख तो सोजे-आर्ज़ी
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कोई नहीं जो साथ दे तेरे हरीमे-राज़ तक
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जिसको भी देखिये वही बज़्म में  है ग़ज़लसरा
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छिड़ गयी दास्ताने-दिल, फिर बहदीसे-दीगराँ।
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बीत गये हैं लाख जुग, सूये-वतन चले हुये
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पहुँची है आदमी की जात, चार कदम कशाँ-कशाँ।
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पाँव से फ़र्के-नाज़ तक बर्क़े-तबस्सुमे-निशात
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हुस्ने-चमनफ़रोश को देख जहाँ है गुलसिताँ।
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दादे-सुखनवरी मिली अबरू-ए-नाज़ उठ गये
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है वही दास्ताने-दिल हुस्न भी कह उठे कि हाँ।
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जैसे खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलहाये
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रात वह दस्ते-नाज़ में जामे-निशात अरग़वा<ref>लाल</ref>।
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राज़े-वज़ूद कुछ न पूँछ, सुब्‍हे-अज़ल से आज तक
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कितने यक़ीन चल बसे, कितने गुजर गये गुमाँ।
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नर्गिसे-नाज़ मरहबा ज़द में है जिसकी कायनात
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चुटकी में नावके-निगाह जुटी भवें कमाँ-कमाँ।
  
  

00:17, 12 जनवरी 2010 का अवतरण

वादे की रात मरहबा, आमदे-यार मेहरबाँ
जुल्फ़े-सियाह शबफ़शाँ, आरिजे़-नाज़ महचकाँ।

बर्क़े-जमाल में तेरी, ख़ुफ़्ता<ref>सोया हुआ</ref> सुकूने-बेकराँ<ref>अपार शान्ति</ref>
और मेरा दिले-तपाँ<ref>व्याकुल हृदय</ref>, आज भी है तपाँ-तपाँ।

शाम भी थी धुआँ-धुआँ हुस्न भी था उदास-उदास
याद सी आके रह गयीं दिल को कई कहानियाँ।

छेड़ के दास्ताने-ग़म, अहले-वतन के दरम्याँ
हम अभी बीच में ही थे और बदल गयी जवाँ।

अपनी ग़ज़ल में हम जिसे कहते रहे हैं बारहा
वो तेरी दास्ताँ कहाँ वो तो है ज़ेबे-दास्ताँ।

कोई न कोई बात है, उसके सुकूते-यास में
भूल गया है सब गिले, आज तो इश्के़-बदगु़मा।

रात कमाल कर गयीं, आलमे-कर्बो-दर्द में
दिल को मेरे सुला गयीं तेरी नज़र की लोरियाँ।

सरहदे-ग़ैब तक तुझे, साफ़ मिलेंगे नक़्शे-पा
पूँछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिये कहाँ-कहाँ।

कहते हैं मेरी मौत पर उसको भी छीन ही लिया
इश्क़ को मुद्दतों के बाद एक मिला था तर्जुमाँ<ref>कहने वाला</ref>।

रंग जमा के उठ गयी कितने तमद्दुनो की बज़्म
याद नहीं ज़मीन को, भूल चुका है आसमा

आर्ज़ियत<ref>क्षणभंगुरता</ref> का सोज भी देख तो सोजे-आर्ज़ी
बीते हुये जुगों से पूँछ किसको सबात<ref>स्थिरता</ref> है कहाँ।

कोई नहीं जो साथ दे तेरे हरीमे-राज़ तक
बिख़रे हुये महो-नुजूम<ref>चाँद-तारे</ref>, देते हैं सब तेरा निशाँ।

जिसको भी देखिये वही बज़्म में है ग़ज़लसरा
छिड़ गयी दास्ताने-दिल, फिर बहदीसे-दीगराँ।

बीत गये हैं लाख जुग, सूये-वतन चले हुये
पहुँची है आदमी की जात, चार कदम कशाँ-कशाँ।

पाँव से फ़र्के-नाज़ तक बर्क़े-तबस्सुमे-निशात
हुस्ने-चमनफ़रोश को देख जहाँ है गुलसिताँ।

दादे-सुखनवरी मिली अबरू-ए-नाज़ उठ गये
है वही दास्ताने-दिल हुस्न भी कह उठे कि हाँ।

जैसे खिला हुआ गुलाब चाँद के पास लहलहाये
रात वह दस्ते-नाज़ में जामे-निशात अरग़वा<ref>लाल</ref>।

राज़े-वज़ूद कुछ न पूँछ, सुब्‍हे-अज़ल से आज तक
कितने यक़ीन चल बसे, कितने गुजर गये गुमाँ।

नर्गिसे-नाज़ मरहबा ज़द में है जिसकी कायनात
चुटकी में नावके-निगाह जुटी भवें कमाँ-कमाँ।



शब्दार्थ
<references/>