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"गुजरात २००२ / कात्यायनी" के अवतरणों में अंतर

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एक चादर पर पन्द्रह शिशु लिटाये गए हैं
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आशवित्ज़ के बाद
वे उन पैंतालीस में से हैं
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कविता संभव नहीं रह गयी थी.
जो दंगों के बाद के इन कुछ हफ़्तों में
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इसे संभव बनाना पड़ा था
एक राहत शिविर में पैदा हुए हैं
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शांति की दुहाई ने नहीं,
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रहम की गुहारों ने नहीं,
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दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं,
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कविता को संभव बनाया था
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न्याय और मानवता के पक्ष में खडे होकर
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लड़ने वाले करोडो नें अपने कुर्बानियों से.
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लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल
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जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ
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और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने.
  
पिछले कई बरसों से तुम जली हुई
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गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं.
फर्श पर गिरी या रखी हुई लाशों की तस्वीरें ही देखते आये हो
+
उसे संभव बनाना होगा.
इधर लगभग हर हफ़्ते देखते हो
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कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई
और हालात ऐसे हैं कि उनकी तादाद और भयावहता इतनी बढ़ जाये
+
होगी कविता के प्रदेश के बाहर.
कि उनके फ़ोटो न लिए जा सकें
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हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से
और उनमें शायद इस अनाम छायाकार के साथ-साथ
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बचने के लिए देश से बाहर
तुम सरीखे देखनेवाले की लाशें भी हों
+
देश-देश भटकने या कहीं और किसी गैर देश की
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सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से
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बेहतर है अपनी जनता के साथ होना
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और उन्हें याद करना जिन्होंने
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जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए
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कूच किया था अपने-अपने देशों से
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सुदूर स्पेन की ओर.
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कविता को यदि संभव बनाना है २००२ में
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गुजरात के बाद
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और अफगानिस्तान के बाद
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और फिलिस्तीन के बाद,
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तो कविता के प्रदेश से बाहर
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बहुत कुछ करना है.
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चलोगे कवि-मित्रो,
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इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ?
  
तस्वीरें और भी हैं
 
सिर से पैर तक जली हुई बच्ची की
 
जिसकी दो सहमी हुई आँखें ही दिख रही हैं पट्टियों के बीच से
 
अपने घर के मलबे में बैठी शून्य में ताकती माँ-बेटी की
 
जान बचा लेने की भीख माँगते घिरे हुए लोगों की
 
 
लेकिन अभी तो तुम्हारे सामने ये पन्द्रह बच्चे हैं
 
 
और ये औरतें जो इनकी माँ बुआ नानी दादी हो सकती हैं
 
या कोई रिश्तेदार नहीं महज़ औरतें
 
 
जो इन्हें घेरकर खड़ी हुई हैं या उकडूँ बैठी हुई हैं
 
इनके चेहरों पर वह कोमलता देखो वह ख़ुशी वह हल्का-सा गर्व
 
और उसमें जो गहरा दुख मिला हुआ है
 
 
उसके साथ तुम भी वह ख़ुशी महसूस करो और थर्रा जाओ
 
 
देखो वे सारे शिशु कितने खुश हैं वे मुस्करा रहे हैं
 
उन औरतों को सिर्फ़ देखकर या पहचान कर
 
या उनके प्यार-भरे सम्बोधन सुनकर
 
नन्हे हाथ कुछ उठे हुए छोटे-छोटे पाँव कुछ मुड़े हुए
 
साफ़ है वे गोदी में आना चाहते हैं
 
 
उन्हें पता नहीं है जिस घर और कुनबे के वे हैं
 
उनके साथ क्या हुआ है
 
और तुम यह कह नहीं सकते कि उनके पिता ज़िन्दा ही हों
 
या घर के दूसरे मर्द
 
या कि उन्हें जनम देने के बाद उनकी माँएँ भी बचीं या नहीं
 
 
चूँकि ये एक मुस्लिम राहत शिविर में पैदा हुए हैं
 
इसीलिए इन्हें मुसलमान शिशु कहा जा सकता है
 
वरना इस फ़ोटो से पता नहीं चल पा रहा है
 
कि ये किसकी सन्तान हैं
 
28 फरवरी को ऐसा फ़ोटो यदि गोधरा स्टेशन पर लिया जा सकता
 
तो ये हिन्दू माने जाते
 
क्योंकि इन औरतों के चेहरों और पहनावे से
 
हिन्दू-मुसलमान की शिनाख्त नहीं हो पा रही है
 
 
इस देश में उन तस्वीरों की किल्लत कभी नहीं होगी
 
जो तुम्हारा कलेजा चाक़ कर दें
 
शर्मिन्दा और ज़र्द कर दें तुम्हें
 
तुम्हारे सोचने कहने महसूस करने की व्यर्थता का एहसास दिलाती रहें
 
 
जिनका एक भी दाँत अभी आया नहीं है
 
तुम क्यों इस क़दर खुश और विचलित हो उन्हें देखकर
 
क्या इसलिए कि वे तुम्हें अपने बच्चों के छुटपन की तस्वीर लगते हैं
 
या ख़ुद तुम्हारी अपनी पहली फ़ोटो की तरह
 
जिसमें तुम माँ की गोद में इसी तरह थोड़े हाथ-पैर हिला बैठे थे
 
या कि फिर उन घिसी-पिटी उक्तियों के मुताबिक़ सोचकर
 
कि बच्चों के कोई धर्म सम्प्रदाय जाति वर्ग भाषा संस्कृति नहीं होते
 
लेकिन तुमने यह भी सोचा कि जिन्होंने गोधरा में जलाया व अहमदाबाद में
 
यदि उनकी भी बचपन या पालने की तस्वीर देखोगे
 
तो वे भी इतने ही प्यारे लगेंगे और मार्मिक
 
और कितना विचित्र चमत्कार लगता है तुम्हें
 
कि राहत शिविर में भी इतने और ऐसे मासूम बच्चे जन्म ले सकते हैं
 
निहत्थे और अछूते
 
और ये ऐसे पहले शिशु नहीं हैं
 
इनसे भी कठिन और अमानवीय हालात में
 
औरतों और मर्दों को बनाया है बच्चों ने माँ-बाप
 
बहुत सारी समस्याएँ पैदा करते आये हैं ये बच्चे
 
जो बड़े हुए हैं और भी कहर बरपा करते हुए
 
लेकिन इन्सानियत भी तभी रहती आ पायी है
 
 
इस तस्वीर के इन पन्द्रह बच्चों में लेकिन ऐसा क्या है
 
की लगता है दीवानावार पहुँच जाऊँ इनके पास
 
कोई ऐसी अगली गाड़ी पकड़कर जिसके जलाये जाने की कोई वजह न हो
 
इनकी माँओं के सामने चुपचाप खड़ा रहूँ गुनहगार
 
गान्धारी के सामने किसी नखजले विजेता के हिमायती की तरह
 
या ले जाऊँ इन बच्चों को उठाकर सौंप दूँ हिन्दुओं को
 
और बदले में ऐसे ही बच्चे हिन्दुओं के बाँट दूँ इनमें
 
या ऐसे तमाम बच्चों को गड्डमड्ड कर दूँ
 
और बुलाऊँ लोगों को उनमें हिन्दू-मुसलमान पहचानने के लिए
 
लेकिन ऐसी भावुक असम्भव ख़तरनाक हरकतें बहुत सोची गयी हैं
 
और उससे बहुत हो नहीं पाया है
 
लेकिन क्या करूँ बचाऊँ इन शिशुओं को
 
किसी जलते हुए डिब्बे फुँकते हुए घर धधकते हुए मुहल्ले में
 
पायी जानेवाली अगली झुलसी हुई लाशें बनने से
 
जिनके हाथ-पैर इन्हीं की तरह मुड़े हुए होते हैं
 
मानो उठा लेने को कह रहे हों या दुआ माँग रहे हों
 
 
क्या इन बच्चों से कहूँ बच्चों बड़े होकर उस वहशियत से बचो
 
जो हममें थी बचो हमारी नफ़रतों हमारे बुग्ज़ हमारी जहालतों से बचो
 
यदि तुम्हे नफ़रत करनी ही है तो हम जैसों से करो
 
और उस सबसे जिसने हमें वैसा बना डाला था
 
तुम्हें अगर इन्तकाम लेना ही है तो हम सरीखों से लो
 
जिनसे तुम सरीखे बचाये नहीं जा सके थे
 
 
लेकिन यह सब क्या पहले नहीं कहा जा चुका है
 
 
फिर भी फिर भी यह हर बार कहा जाना ही चाहिए
 
इन बच्चों को सिर्फ़ बचाना ही ज़रूरी नहीं है
 
वह ख़ुशी कैसे बचे वह मुस्कान कैसे
 
जो अभी फ़क़त अपने आसपास महज़ इन्सानों को देख इनके चेहरों पर है
 
और नामुमकिन उम्मीदें जगाती है
 
कितना भी तार-तार क्यों न लगे यह
 
लेकिन हाँ ये उम्मीद हैं हमारे भविष्य-जैसी किसी चीज़ की
 
हाँ इन्हें देखकर फिर वह पस्त जज़्बा उभरता है आदमी को बचाने का
 
हाँ ये यकीन दिलाते-से लगते हैं कि इन्हें देखकर जो ममता जागती है
 
अन्ततः शायद वही बचा पायेगी इन्हें और हमें
 
सब बताया जाये इन्हें क्योंकि वैसे भी ये जान लेंगे
 
यह उन पर छोड़ दिया जाये कि वे क्या तय करते हैं फिर
 
लेकिन ये जो अभी नहीं जानते कि वे क्या-क्या से बच पाये हैं
 
उन्हें बचायें क्योंकि एक दिन शायद इन्हीं में से कुछ बचायेंगे
 
अपनों को हम जैसों को और उस सबको जो बचाने लायक़ है
 
और शायद बनायेंगे वह
 
जो मिटा दिया जाता है जला दिया जाता है फिर भी बार-बार बनता है
 
जनमता हुआ
 
 
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23:53, 18 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

आशवित्ज़ के बाद
कविता संभव नहीं रह गयी थी.
इसे संभव बनाना पड़ा था
शांति की दुहाई ने नहीं,
रहम की गुहारों ने नहीं,
दुआओं ने नहीं, प्रार्थनाओं ने नहीं,
कविता को संभव बनाया था
न्याय और मानवता के पक्ष में खडे होकर
लड़ने वाले करोडो नें अपने कुर्बानियों से.
लौह-मुष्टि ने ही चूर किया था वह कपाल
जहाँ बनती थी मानवद्रोही योजनाएँ
और पलते थे नरसंहारक रक्तपिपासु सपने.

गुजरात के बाद कविता सम्भव नहीं.
उसे संभव बनाना होगा.
कविता को सम्भव बनाने की यह कार्रवाई
होगी कविता के प्रदेश के बाहर.
हत्यारों की अभ्यर्थना में झुके रहने से
बचने के लिए देश से बाहर
देश-देश भटकने या कहीं और किसी गैर देश की
सीमा पर आत्महत्या करने को विवश होने से
बेहतर है अपनी जनता के साथ होना
और उन्हें याद करना जिन्होंने
जान बचाने के लिए नहीं, बल्कि जान देने के लिए
कूच किया था अपने-अपने देशों से
सुदूर स्पेन की ओर.
कविता को यदि संभव बनाना है २००२ में
गुजरात के बाद
और अफगानिस्तान के बाद
और फिलिस्तीन के बाद,
तो कविता के प्रदेश से बाहर
बहुत कुछ करना है.
चलोगे कवि-मित्रो,
इतिहास के निर्णय की प्रतीक्षा किये बिना ?