भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पिता-1 / चंद्र रेखा ढडवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
 
मैं छू लेना चाहता हूँ
 
मैं छू लेना चाहता हूँ
 
पहाड़ों की नर्म धूप
 
पहाड़ों की नर्म धूप
 +
 
मेरे पैरों में किश्तियाँ बाँध दो
 
मेरे पैरों में किश्तियाँ बाँध दो
 
मैं पा लेना चाहता हूँ
 
मैं पा लेना चाहता हूँ
 
सात समंदर पार के
 
सात समंदर पार के
 
नीलम देश की राजकन्या
 
नीलम देश की राजकन्या
 +
 
मेरी हथेलियों पर बो दो सरसों के बीज
 
मेरी हथेलियों पर बो दो सरसों के बीज
 
जो रातों-रात भरी-भरी फलियों से लदी
 
जो रातों-रात भरी-भरी फलियों से लदी
 
पौध हो जाएँ.
 
पौध हो जाएँ.
 
</poem>
 
</poem>

09:07, 30 नवम्बर 2009 का अवतरण


 पिता (एक)

पिता! मेरे कंधों पर
सुर्ख़ाब के पर रख दो
मैं छू लेना चाहता हूँ
पहाड़ों की नर्म धूप

मेरे पैरों में किश्तियाँ बाँध दो
मैं पा लेना चाहता हूँ
सात समंदर पार के
नीलम देश की राजकन्या

मेरी हथेलियों पर बो दो सरसों के बीज
जो रातों-रात भरी-भरी फलियों से लदी
पौध हो जाएँ.