भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बड़ी हुई धूप / शांति सुमन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=शांति सुमन
 
|रचनाकार=शांति सुमन
 
|संग्रह =  
 
|संग्रह =  
 
}}
 
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
बड़ी हुई कुछ और धूप
 +
ये तेवर निखरे जून के
 +
उजले-उजले पंखों वाले
 +
पाखी जैसे हों चून के
  
 +
भरी हुई उजली दोपहरी
 +
हुई छाँह पेड़ की छोटी
 +
अब घर नहीं लौटते बच्चे
 +
सिर पर रख कापी मोटी
  
<br>
+
बुखर गए बस्ते जैसे
 +
सामान किसी परचून के
 +
अक्षर-अक्षर नाच रही
 +
आँखें जैसे हों तितली
 +
सिर पर चढ़े मोर सी नाचे
 +
चंचल पानी की मछली
  
बड़ी हुई कुछ और धूप<br>
+
हँस-हँसकर दुहरे होते वो
ये तेवर निखरे जून के<br>
+
सपने उड़ते बैलून के  
उजले-उजले पंखों वाले<br>
+
धीरे-धीरे दिन जाता है
पाखी जैसे हों चून के<br>
+
रात कहीं से जल्दी
<br>
+
बाग हुए रस भरे अमावट
 
+
देह लगी जो हल्दी
भरी हुई उजली दोपहरी<br>
+
बरफ चूसकर लेटे होंगे
हुई छाँह पेड़ की छोटी<br>
+
खत पढ़ते पिछले जून के  
अब घर नहीं लौटते बच्चे<br>
+
</poem>
सिर पर रख कापी मोटी<br>
+
 
+
बुखर गए बस्ते जैसे<br>
+
सामान किसी परचून के<br>
+
<br>
+
अक्षर-अक्षर नाच रही<br>
+
आँखें जैसे हों तितली<br>
+
सिर पर चढ़े मोर सी नाचे<br>
+
चंचल पानी की मछली<br>
+
<br>
+
हँस-हँसकर दुहरे होते वो<br>
+
सपने उड़ते बैलून के <br>
+
<br>
+
धीरे-धीरे दिन जाता है<br>
+
रात कहीं से जल्दी<br>
+
बाग हुए रस भरे अमावट<br>
+
देह लगी जो हल्दी<br>
+
<br>
+
बरफ चूसकर लेटे होंगे<br>
+
खत पढ़ते पिछले जून के <br>
+
<br>
+

15:42, 8 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण

बड़ी हुई कुछ और धूप
ये तेवर निखरे जून के
उजले-उजले पंखों वाले
पाखी जैसे हों चून के

भरी हुई उजली दोपहरी
हुई छाँह पेड़ की छोटी
अब घर नहीं लौटते बच्चे
सिर पर रख कापी मोटी

बुखर गए बस्ते जैसे
सामान किसी परचून के
अक्षर-अक्षर नाच रही
आँखें जैसे हों तितली
सिर पर चढ़े मोर सी नाचे
चंचल पानी की मछली

हँस-हँसकर दुहरे होते वो
सपने उड़ते बैलून के
धीरे-धीरे दिन जाता है
रात कहीं से जल्दी
बाग हुए रस भरे अमावट
देह लगी जो हल्दी
बरफ चूसकर लेटे होंगे
खत पढ़ते पिछले जून के