भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कोई रक्तपलाश / शांति सुमन" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Amitprabhakar (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKRachna |रचनाकार=शांति सुमन |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> अबके इस होली में कोई रक…) |
Amitprabhakar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=शांति सुमन | |रचनाकार=शांति सुमन | ||
− | |संग्रह= | + | |संग्रह=भीतर भीतर आग |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
23:44, 26 फ़रवरी 2010 का अवतरण
अबके इस होली में कोई रक्तपलाश खिले
अनुबंधों की याद दिलाये, पीत कनेर हिले
घाट नहाती लड़की जैसे
डूबी हुई हवा
हुई अनमनी छाँहों वाली
गुमसुम लाल जवा
राजमहल कैसे बन जाते कैसे बने किले
पेड़ों की मुंडेर पर चिड़ियों के हैं पंख सिले
अक्षर-अक्षर छींट गया है
कोई सुबह उदासी
घूँट-घूँट पानी से तर
कर लेता रोटी बासी
चिन्ता तो होती है, पर किससे वह करे गिले
ईंच-ईंच बिक गया तपेसर होली कहाँ जले
इस मौसम में फिर कोई
जादू ऐसा जनमे
फागुन-फागुन हो जाए दिन
परवत पीर कमे
मजबूरी है वरना कोई कैसे नहीं मिले
रंग-रंग के मेले, मन के नयम नहीं बदले
(संग्रह - भीतर भीतर आग । २५ फरवरी, १९९७)