भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अंश / मिक्लोश रादनोती" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=मिक्लोश रादनोती |संग्रह= }} Category:हंगारी भाषा <P…)
 
छो ("अंश / मिक्लोश रादनोती" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
(कोई अंतर नहीं)

23:14, 28 दिसम्बर 2009 का अवतरण

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: मिक्लोश रादनोती  » अंश

मैं एक ऐसे ज़माने में इस धरती पर रहा
जब आदमी इतना गिर गया था
कि वह अपनी मर्ज़ी से दूसरों की जान लेता था, मज़े के लिए, किसी के हुक्म से नहीं
उसकी ज़िन्दगी पागल इरादों से बनी थी
वह झूठे ख़ुदाओं में यकीन करता था, बदगुमान, उसके मुंह से फेन गिरता था।

मैं एक ऐसे ज़माने में इस धरती पर रहा
जब विश्वासघात और हत्या का आदर होता था
ख़ूनी, गद्दार और चोर हीरो थे
और जो चुप रहता था और ताली नहीं बजाता था
उससे ऐसी नफ़रत की जाती थी जैसे उसे कोढ़ हो।

मैं एक ऐसे ज़माने में इस धरती पर रहा
जब अगर एक आदमी साफ़-साफ़ कह देता था तो उसे मुँह छिपाना पड़ता था
और शर्म से अपनी मुट्ठियाँ चबानी पड़ती थीं
मुल्क पागल हो गया था--ख़ून और गलाज़त में धुत
अपने भयानक अंजाम पर ख़ुश होता था

मैं एक ऐसे ज़माने में इस धरती पर रहा
जब माँ अपने ही बच्चे पर एक लानत थी
औरतें अपने हमल गिराकर खुश होती थीं
टेबिल पर रखे गाढ़े ज़हर के प्याले से झाग उठता था
और ज़िन्दा थे वे ताबूत में क़ैद सड़ते हुए मुर्दों से रश्क करते थे

मैं एक ऐसे ज़माने में इस धरती पर रहा
जब कवि भी चुप थे
और ईसा की प्रतीक्षा कर रहे थे--
भयानक शब्दों के जानकार उस पैग़म्बर की--
क्योंकि सिर्फ़ वही एक सही शाप दे सकता था।


रचनाकाल : 19 मई 1944

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे