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दुःख के कोड़े खाता हुआ
मैं रोज़ चलता हूँ
अपने ही देश में ज़लावतन
और इसका शायद ही कोई मतलब है कि कब तक और कहाँ
मैं आता हूँ, जाता हूँ, बैठता हूँ
और आकाश का हर एक तारा
मेरे ख़िलाफ़ है
आकाश के तारे भी
बादलों के पीछे छिपते हैं
और अँधेरे में ठोकरें खाता हुआ
मैं नदी और उसमें झुकी हुई घास तक पहुँचता हूँ
जहाँ सरकंडे उग रहे हैं
अब मेरे साथ कोई नहीं है
और लम्बे अरसे से
मैंने वाकई नाचना नहीं चाहा है
लम्बे अरसे से ठंडी नाक वाले हिरन ने
मेरा पीछा नहीं किया है
मैं दलदल में से हाथ पैर मारता निकलता हूँ
और उसकी सतह से भाप उठती है
उसकी सतह से भाप़ उठती है
और मैं डूबता हूँ, डूबता हूँ
मेरे ऊपर गीले लत्तों की तरह
दो बाज़ मंडरा रहे हैं।
रचनाकाल : 7 जून 1939
अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे