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|संग्रह= जिजीविषा / महेन्द्र भटनागर
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{{KKCatKavita}}<poem>आँधियाँ फिर से क्षितिज पर<br>मुक्त मँडराने लगीं !<br>जन-सिन्धु में हलचल नयी,<br>अँगड़ाइयाँ भर सुप्त लहरें<br>व्याघ्र-स्वर करती जगीं !<br><br>
दूर का प्रेरक बड़ा उद्गम<br>रुकावट चीर कर,<br>चट्टान का उर भेद कर,<br> शायद, गरजता बढ़ प्रवाह गया !<br>कर लिया संचित सुदृढ़ बल फिर<br>अथक दुर्दम नया !<br>है तभी तो युग तुम्हारे<br>प्राण में उत्साह, जीवन, स्नेह, धड़कन !<br>मरकुरी-सी ज्योति <br><br>
आगत युग-नयन की,<br>दूर है धुँधली सभी छाया सपन की !<br>ढीर जड़ता की गयी गिर,<br>तुम तभी तो देख लेते हो<br>छिपे अगणित विरोधी,<br>और उनको भी <br> बदल कर भेष अपना<br>जो तुम्हारे साथ होने का<br>सरासर झूठ खुफ़िया-सा वचन<br>विश्वास का तुमको सुनाते हैं !<br><br>
सभी ये जन-विरोधी शक्तियाँ<br>जब मिल गयीं<br>लख कर निजी हित<br>और जर्जर ‘इन्क़लाबी गीत’ से<br>संसार को<br>नव-पथ-दिशा से रोक<br>भरमाने लगीं,<br>सम्मुख तभी तो<br>आँधियाँ फिर से क्षितिज पर<br>आज मँडराने लगीं !<br>संघर्ष-ज्वाला की प्रखर लपटें<br>पुनः अविश्रान्त लहराने लगीं ।लगीं।</poem>
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