"रश्मिरथी / सप्तम सर्ग / भाग 1" के अवतरणों में अंतर
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उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br> | उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .<br> | ||
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− | अङगार-वृष्टि पा धधक | + | अङगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,<br> |
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br> | सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .<br> | ||
− | यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता | + | यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बद्ध मनुज का वश ,<br> |
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br> | हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .<br> | ||
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सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br> | सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .<br> | ||
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br> | अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;<br> | ||
− | कुछ और समुद्वेलित होकर, | + | कुछ और समुद्वेलित होकर, उमड़ा भुज का सागर अथाह .<br> |
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− | गरजा | + | गरजा अशंक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,<br> |
− | कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह | + | कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकड़ता हूं .<br> |
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बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br> | बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,<br> | ||
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br> | लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .<br> | ||
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− | इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड | + | इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड गये सामने धर्मराज ,<br> |
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br> | टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .<br> | ||
− | लेकिन, दोनों का विषम | + | लेकिन, दोनों का विषम यु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,<br> |
− | सह सकी न गहरी चोट, | + | सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .<br> |
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− | भागे वे रण को छोड, | + | भागे वे रण को छोड, ककर्ण ने झपट दौड़कर गहा ग्रीव ,<br> |
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br> | कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .<br> | ||
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br> | हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .<br> | ||
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क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br> | क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?<br> | ||
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br> | मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,<br> | ||
− | जाइये, नहीं फिर कभी गरुड | + | जाइये, नहीं फिर कभी गरुड की झपटों से खेला करिये .''<br> |
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− | + | भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,<br> | |
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br> | सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?<br> | ||
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br> | प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?<br> | ||
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कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br> | कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .<br> | ||
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− | देखता रहा सब | + | देखता रहा सब शल्य, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,<br> |
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br> | बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,<br> | ||
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br> | ''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?<br> | ||
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हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br> | हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,<br> | ||
− | क्षयमान्, | + | क्षयमान्, क्षणिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .<br> |
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br> | इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,<br> | ||
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br> | करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .<br> | ||
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''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br> | ''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,<br> | ||
− | पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा | + | पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सद्धर्म निभाने को ,<br> |
− | सबके समेत | + | सबके समेत पंकिल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?<br> |
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ? | ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ? |
21:17, 16 मई 2009 का अवतरण
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .
अङगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बद्ध मनुज का वश ,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमड़ा भुज का सागर अथाह .
गरजा अशंक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकड़ता हूं .
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड गये सामने धर्मराज ,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .
लेकिन, दोनों का विषम यु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .
भागे वे रण को छोड, ककर्ण ने झपट दौड़कर गहा ग्रीव ,
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .
''हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड की झपटों से खेला करिये .''
भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .
देखता रहा सब शल्य, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''
''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''
हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,
क्षयमान्, क्षणिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .
''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .
''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सद्धर्म निभाने को ,
सबके समेत पंकिल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?