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"रक्षा / बदलता युग / महेन्द्र भटनागर" के अवतरणों में अंतर

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::डूबे गाँव,  
 
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::नदी के कूल गये पथ भूल,
 
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::कि चारों ओर  
 
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::मचा है शोर !
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::सेठों के रक्षक-दल भागे
 
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:::आगे-आगे,
 
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::बिड़ला-डालमिया ने  
 
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::धोती-कम्बल बाँटे,
 
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::बनकर दान-दया के वीर !
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::चलाकर मीठे रस के तीर !
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::दिये हैं अपने घर के चीर !  
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::कल जब बाढ़ बढ़ेगी और,
 
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::भगे-उखड़ों की नहीं मिलेगी ठौर,
 
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::अपनी बैठक दे देंगे सत्त्वर,
 
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::और स्वयं सो जाएंगे यों ही
 
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::खोल ‘कला सज्जित-कक्ष’ गरम !
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::जल से भीग गये हैं खूब,
 
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::तभी तो काँप रही है देह,
 
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::नहीं उठते हैं आज क़दम
 
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::लख कर पीड़ा गये सहम !
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::मज़लूमों की रक्षा हित
 
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::सेवा करने निकले,
 
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::बेदाग़ पहन कर कपड़े !
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::देने आश्वासन —
 
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::न डरो,
 
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::विधवा-आश्रम खुलवा देंगे,
 
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::धीरे-धीरे  
 
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::सब का ब्याह करा देंगे !
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::मरे हुओं को गंगा-यमुना में
 
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::या लकड़ी-इंधन देकर  
 
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::बेहद चिन्तित हैं प्राण,
 
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::हमारे कहते हैं अख़बार —
 
::हमारे कहते हैं अख़बार —
::‘अर्जुन, नवभारत, विश्वमित्र, हिन्दुस्थान’ !
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::‘अर्जुन, नवभारत, विश्वमित्र, हिन्दुस्थान’!
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13:14, 2 जनवरी 2010 के समय का अवतरण

डूबे गाँव,
बढ़ी है बाढ़!
नदी के कूल गये पथ भूल,
कि चारों ओर
मचा है शोर!
सेठों के रक्षक-दल भागे
आगे-आगे,
बिड़ला-डालमिया ने
धोती-कम्बल बाँटे,

बनकर दान-दया के वीर!
चलाकर मीठे रस के तीर!
दिये हैं अपने घर के चीर!
कल जब बाढ़ बढ़ेगी और,
भगे-उखड़ों की नहीं मिलेगी ठौर,
तब ये बाहर आधे नंगे रहकर
अपनी बैठक दे देंगे सत्त्वर,
और स्वयं सो जाएंगे यों ही
खोल ‘कला सज्जित-कक्ष’ गरम!

जल से भीग गये हैं खूब,
तभी तो काँप रही है देह,
नहीं उठते हैं आज क़दम
लख कर पीड़ा गये सहम!
मज़लूमों की रक्षा हित
सेवा करने निकले,
बेदाग़ पहन कर कपड़े!
देने आश्वासन —
न डरो,
हम कर देंगे सभी व्यवस्था
विधवा-आश्रम खुलवा देंगे,
धीरे-धीरे
सब का ब्याह करा देंगे!
मरे हुओं को गंगा-यमुना में
या लकड़ी-इंधन देकर
पार लगा देंगे।
सच मानों,
बेहद चिन्तित हैं प्राण,
हमारे कहते हैं अख़बार —
‘अर्जुन, नवभारत, विश्वमित्र, हिन्दुस्थान’!