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पड़ोस की दादी | पड़ोस की दादी | ||
तीनों घर पीती है चाय | तीनों घर पीती है चाय | ||
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नीड़; बिनु निकास कैसा! | नीड़; बिनु निकास कैसा! | ||
उधर- | उधर- | ||
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बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने | बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने | ||
− | + | पिता के बाद तुम लोगों को | |
पाल-पोसकर बड़ा किए | पाल-पोसकर बड़ा किए | ||
पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए | पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए | ||
क्या-क्या नहीं सहना पड़ा... | क्या-क्या नहीं सहना पड़ा... | ||
− | + | इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़कर | |
चले गए पच्छिम भर... | चले गए पच्छिम भर... | ||
− | मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं | + | मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं- |
− | -पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref> | + | पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref> |
फिरे काहे का बड़प्पन। | फिरे काहे का बड़प्पन। | ||
फुसफुसाए बाबूजी | फुसफुसाए बाबूजी | ||
तमतमाई माँ सवेरे से उकसा रही है बाबूजी को | तमतमाई माँ सवेरे से उकसा रही है बाबूजी को | ||
− | + | सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ | |
झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया! | झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया! | ||
हवा में पसर गई है | हवा में पसर गई है | ||
असंतोष की धुआँइन गन्ध | असंतोष की धुआँइन गन्ध | ||
गरमा रहा है माहौल | गरमा रहा है माहौल | ||
− | फनककर बोल गए हैं बड़का कका | + | फनककर बोल गए हैं बड़का कका- |
− | -सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं | + | सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं |
तुम लोग लेना बाप का... | तुम लोग लेना बाप का... | ||
11:58, 21 जनवरी 2010 का अवतरण
जवान फागुन में भी
आम की मँजरियाँ उदास हैं
कोयली का कुहकना कबसे नहीं सुना
मंझली काकी मुँह फुलाए बैठी है
बँटवारा है आज बासडीह<ref>निवास के लिए उपयुक्त भूखण्ड</ref> का।
मँझला कका से
कई बार भिड़ चुके हैं बाबूजी
रस्ता कैसे नहीं छोड़िएगा!
बड़की काकी की बात
आग में देसी घी
-न...न... आप काहे छोड़िएगा एको कड़ी।
पड़ोस की दादी
तीनों घर पीती है चाय
इहो होता है, रास्ता न छोड़े
नीड़; बिनु निकास कैसा!
उधर-
बाउ देखिए, जेठ-छोट का
थोड़ा भी लेहाज है
रस्ता के लिए ज़मीन छोड़िएगा तो
आपके मकान का पूरा नक्शा ही न बिगड़ जाएगा!
बड़का कका खोल रहे हैं अतीत के पन्ने
पिता के बाद तुम लोगों को
पाल-पोसकर बड़ा किए
पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा किए
क्या-क्या नहीं सहना पड़ा...
इसीलिए झंझटिया ज़मीन इधर छोड़कर
चले गए पच्छिम भर...
मँझला काका उपहास की हँसी हँसते हैं-
पालने-पोसने को ही तो वसूल रहे हैं जेठांस<ref>प्राचीन परम्परा के अनुसार बँटवारे के समय बड़े भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त अंश</ref>
फिरे काहे का बड़प्पन।
फुसफुसाए बाबूजी
तमतमाई माँ सवेरे से उकसा रही है बाबूजी को
सबसे बुरलेल<ref>बेवकूफ़</ref> दीनानाथ
झंझटिया ज़मीन भी आप ही में ठेल दिया!
हवा में पसर गई है
असंतोष की धुआँइन गन्ध
गरमा रहा है माहौल
फनककर बोल गए हैं बड़का कका-
सब हम अरजे<ref>अर्जन करना</ref> हैं
तुम लोग लेना बाप का...
हम सभी पितिऔत<ref>चचेरे भाई</ref>
फाँड़ कस तैयार हैं।