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"कालातीत की कविता / मंगलेश डबराल" के अवतरणों में अंतर

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कालातीत कवि अपने जीते जी कालातीत हो जाते हैं. एक सुबह वे<br>
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कालातीत कवि अपने जीते जी कालातीत हो जाते हैं. एक सुबह वे
यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वे काफी बड़े हो गये हैं. कई<br>
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यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वे काफी बड़े हो गये हैं. कई
बार उन्हें अपने से तिगुना-चौगुना होते हुए देखा गया है. उनके<br>
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बार उन्हें अपने से तिगुना-चौगुना होते हुए देखा गया है. उनके
पाजामे अकसर छोटे पड़ जाते हैं. अपनी चप्पलें वे छोटे कवियों को<br>
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पाजामे अकसर छोटे पड़ जाते हैं. अपनी चप्पलें वे छोटे कवियों को<
 
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कुछ कवि रात में कालातीत होते हैं. लोग जब सिकुड़े-सिमटे गठरी<br>
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कुछ कवि रात में कालातीत होते हैं. लोग जब सिकुड़े-सिमटे गठरी
बने नींद में दुबके रहते हैं कवियों का कद बढ़ता रहता है. कभी वे<br>
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बने नींद में दुबके रहते हैं कवियों का कद बढ़ता रहता है. कभी वे
इतने बढ़े हो उठते हैं कि वे भी अपने को देख नहीं पाते. कुछ कवि<br>
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इतने बढ़े हो उठते हैं कि वे भी अपने को देख नहीं पाते. कुछ कवि
अपने बचपन में ही बुजुर्ग हो गये. युवा होते-होते उन्हें कालजयी कहा<br>
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अपने बचपन में ही बुजुर्ग हो गये. युवा होते-होते उन्हें कालजयी कहा
जाने लगा. कुछ ने अपने नाम मृतकों की सूची में लिखवा लिये. कुछ<br>
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जाने लगा. कुछ ने अपने नाम मृतकों की सूची में लिखवा लिये. कुछ
 
दूसरी भाषाओं में पा गये ईनाम.
 
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कुछ कवि अपने बचपन के फोटो छ्पवाते हैं. बाकी अपने बच्चों के<br>
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कुछ कवि अपने बचपन के फोटो छ्पवाते हैं. बाकी अपने बच्चों के
फोटो छ्पवाकर काम चलाते हैं कि हम तो रहे विफल. अब बच्चों<br>
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फोटो छ्पवाकर काम चलाते हैं कि हम तो रहे विफल. अब बच्चों
 
से ही है उम्मीद.
 
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१९८८
 
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17:44, 12 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण

कालातीत कवि अपने जीते जी कालातीत हो जाते हैं. एक सुबह वे
यह देखकर आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि वे काफी बड़े हो गये हैं. कई
बार उन्हें अपने से तिगुना-चौगुना होते हुए देखा गया है. उनके
पाजामे अकसर छोटे पड़ जाते हैं. अपनी चप्पलें वे छोटे कवियों को<
दे देते हैं.

कुछ कवि रात में कालातीत होते हैं. लोग जब सिकुड़े-सिमटे गठरी
बने नींद में दुबके रहते हैं कवियों का कद बढ़ता रहता है. कभी वे
इतने बढ़े हो उठते हैं कि वे भी अपने को देख नहीं पाते. कुछ कवि
अपने बचपन में ही बुजुर्ग हो गये. युवा होते-होते उन्हें कालजयी कहा
जाने लगा. कुछ ने अपने नाम मृतकों की सूची में लिखवा लिये. कुछ
दूसरी भाषाओं में पा गये ईनाम.

कुछ कवि अपने बचपन के फोटो छ्पवाते हैं. बाकी अपने बच्चों के
फोटो छ्पवाकर काम चलाते हैं कि हम तो रहे विफल. अब बच्चों
से ही है उम्मीद.

१९८८