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"साकेत / मैथिलीशरण गुप्त / नवम सर्ग / पृष्ठ ३" के अवतरणों में अंतर

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’धरो!’ खगि, किसे धरूँ? धृति लिये गये हैं घनी।
 
’धरो!’ खगि, किसे धरूँ? धृति लिये गये हैं घनी।
  
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तुझ पर-मुझ पर हाथ फेरते साथ यहाँ,
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शशक, विदित है तुझे आज वे नाथ कहाँ?
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तेरी ही प्रिय जन्मभूमि में, दूर नहीं,
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जा तू भी कहना कि उर्मिला क्रूर वहीं!
  
वेदने, तू भी भली बनी।  
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लेते गये क्यों न तुम्हें कपोत, वे,
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:गाते सदा जो गुण थे तुम्हारे?
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लाते तुम्हीं हा! प्रिय-पत्र-पोत वे,
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:दुःखाब्धि में जो बनते सहारे।
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औरों की क्या कहिए,
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:निज रुचि ही एकता नहीं रखती;
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चन्द्रामृत पीकर तू
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:चकोरि, अंगार है चखती!
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विहग उड़ना भी ये हो वद्ध भूल गये, अये,
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यदि अब इन्हें छोडूँ तो और निर्दयता दये!
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परिजन इन्हें भूले, ये भी उन्हें, सब हैं बहे;
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बस अब हमीं साथी-संगी, सभी इनके रहे।
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मेरे उर-अंगार के बनें बाल-गोपाल,
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अपनी मुनियों से मिले पले रहो तुम लाल!
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::वेदने, तू भी भली बनी।  
 
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।  
 
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।  
नई किरण छोडी है तूने, तू वह हीर-कनी,  
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नई किरण छोडी है तू ने, तू वह हीर-कनी,  
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय विशिख-अनी।
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सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय-विशिख-अनी!
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु सनी,  
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ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु-सनी,  
तू ही उष्ण उसे रखेगी मेरी तपन-मनी। 
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तू ही उष्ण उसे रक्खेगी मेरी तपन-मनी!
आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्ट-जनी।
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आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्टि-जनी!
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी।
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तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी!
अरी वियोग समाधि, अनोखी, तू क्या ठीक ठनी,  
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अरी वियोग-समाधि, अनोंखी, तू क्या ठीक ठनी,  
अपने को प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।  
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अपने को, प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।  
 
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,  
 
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,  
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राणधनी  ॥१॥ 
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तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राण-धनी।
  
कहती मैं चातकि, फिर बोल।
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लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा!
ये खारी आँसू की बूँदे दे सकती यदि मोल।
+
ब्योम-सिन्धु सखि, देख, तारक-बुद्बुद दे रहा!
कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलो की तोल?
+
फिर भी, फिर भी, इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल।
+
श्रुति-पुट लेकर पूर्व स्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल।
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देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल।
+
जाग उठे हैं मेरे सौ-सौ स्वप्न स्वंय हिल-डोल,
+
और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल।
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न कर वेदना-सुख से वंचित बढा हृदय-हिंदोल,
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जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल  ॥२॥ 
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निरख सखी ये खंजन आये।
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दीपक-संग शलभ भी
फेरे उन मेरे रंजन ने नयन इधर मन भाये।
+
:जला न सखि, जीत सत्व से तम को,
फैला उनके तन का आतप, मन-से सर-सरसाये,  
+
क्या देखना - दिखाना
घूमे वे इस ओर वहाँ ये यहाँ हंस उड़ छाये।
+
:क्या करना है प्रकाश का हमको?
कर के ध्यान आज इस जन का निश्चय वे मुस्काये,
+
फूल उठे हैं कमल, अधर से ये बंधूक सुहाये। 
+
स्वागत, स्वागत शरद, भाग्य से मैनें दर्शन पाये,
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नभ ने मोती वारे लो, ये अश्रु अर्ध्य भर लाये  ॥३॥ 
+
  
शिशिर, न फिर गिरि वन में।
 
जितना मांगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में।
 
कितना कंपन तुझे चाहिए, ले मेरे इस तन में, 
 
सखी कह रही, पांडुरता का क्या अभाव आनन में।
 
वीर, जमा दे नयन-नीर यदि तू मानस भाजन में,
 
तो मोती-सा मैं अकिंचना रकखूँ उसको मन में।
 
हँसी गई, रो भी न सकूँ मैं - अपने इस जीवन में,
 
तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव-भुवन में  ॥४॥ 
 
  
यही आता है इस मन में।
 
छोड़ धाम-धन जा कर मैं भी रहूँ उसी वन में।
 
प्रिय के व्रत में विघ्न न डालूँ, रहूँ निकट भी दूर,
 
व्यथा रहे पर साथ-साथ ही समाधान भरपूर।
 
हर्ष डूबा हो रोदन में,
 
यही आता है इस मन में,
 
बीच बीच में कभी देख लूँ मैं झुरमुट की ओट,
 
जब वे निकल जायँ तब लेटूँ उसी धूल में लोट।
 
रहें रत वे निज साधन में,
 
यही आता है इस मन में।
 
जाती-जाती, गाती-गाती, कह जाऊँ यह बात,
 
धन के पीछे जन, जगती में उचित नहीं उत्पात। 
 
प्रेम की ही जय जीवन में,
 
यही आता है इस मन में  ॥५॥ 
 
 
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22:46, 4 फ़रवरी 2010 का अवतरण

आगे जीवन की सन्ध्या है, देखें क्या हो आली?
तू कहती है--’चन्द्रोदय ही, काली में उजियाली’?
सिर-आँखों पर क्यों न कुमुदिनी लेगी वह पदलाली?
किन्तु करेंगे कोक-शोक की तारे जो रखवाली?
’फिर प्रभात होगा’ क्या सचमुच? तो कृतार्थ यह चेरी।
जीवन के पहले प्रभात में आँख खुली जब मेरी।
सखि, विहग उड़ा दे, हों सभी मुक्तिमानी,
सुन शठ शुक-वाणी-’हाय! रूठो न रानी!’
खग, जनकपुरी की ब्याह दूँ सारिका मैं?
तदपि यह वहीं की त्यक्त हूँ दारिका मैं!
कह विहग, कहाँ हैं आज आचार्य तेरे?
विकच वदन वाले वे कृती कान्त मेरे?
सचमुच ’मृगया में’? तो अहेरी नये वे,
यह हत हरिणी क्यों छोड़ यों ही गये वे?
निहार सखि, सारिका कुछ कहे बिना शान्त-सी,
दिये श्रवण है यहीं, इधर मैं हुई भ्रान्त-सी।
इसे पिशुन जान तू, सुन सुभाषिणी है बनी--
’धरो!’ खगि, किसे धरूँ? धृति लिये गये हैं घनी।

तुझ पर-मुझ पर हाथ फेरते साथ यहाँ,
शशक, विदित है तुझे आज वे नाथ कहाँ?
तेरी ही प्रिय जन्मभूमि में, दूर नहीं,
जा तू भी कहना कि उर्मिला क्रूर वहीं!

लेते गये क्यों न तुम्हें कपोत, वे,
गाते सदा जो गुण थे तुम्हारे?
लाते तुम्हीं हा! प्रिय-पत्र-पोत वे,
दुःखाब्धि में जो बनते सहारे।
औरों की क्या कहिए,
निज रुचि ही एकता नहीं रखती;
चन्द्रामृत पीकर तू
चकोरि, अंगार है चखती!
विहग उड़ना भी ये हो वद्ध भूल गये, अये,
यदि अब इन्हें छोडूँ तो और निर्दयता दये!
परिजन इन्हें भूले, ये भी उन्हें, सब हैं बहे;
बस अब हमीं साथी-संगी, सभी इनके रहे।

मेरे उर-अंगार के बनें बाल-गोपाल,
अपनी मुनियों से मिले पले रहो तुम लाल!

वेदने, तू भी भली बनी।
पाई मैंने आज तुझी में अपनी चाह घनी।
नई किरण छोडी है तू ने, तू वह हीर-कनी,
सजग रहूँ मैं, साल हृदय में, ओ प्रिय-विशिख-अनी!
ठंडी होगी देह न मेरी, रहे दृगम्बु-सनी,
तू ही उष्ण उसे रक्खेगी मेरी तपन-मनी!
आ, अभाव की एक आत्मजे, और अदृष्टि-जनी!
तेरी ही छाती है सचमुच उपमोचितस्तनी!
अरी वियोग-समाधि, अनोंखी, तू क्या ठीक ठनी,
अपने को, प्रिय को, जगती को देखूँ खिंची-तनी।
मन-सा मानिक मुझे मिला है तुझमें उपल-खनी,
तुझे तभी त्यागूँ जब सजनी, पाऊँ प्राण-धनी।

लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा!
ब्योम-सिन्धु सखि, देख, तारक-बुद्बुद दे रहा!

दीपक-संग शलभ भी
जला न सखि, जीत सत्व से तम को,
क्या देखना - दिखाना
क्या करना है प्रकाश का हमको?