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"राजा की आएगी बारात / शैलेन्द्र" के अवतरणों में अंतर

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10:59, 1 मार्च 2010 का अवतरण

जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग
एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग

याद रहता है किसे गुज़रे ज़माने का चलन
सर्द पड़ जाती है चाहत हार जाती है लगन
अब मोहब्बत भी है क्या इक तिजारत के सिवा
हम ही नादां थे जो ओढ़ा बीती यादों का क़फ़न
वरना जीने के लिए सब कुछ भुला देते हैं लोग

जाने वो क्या लोग थे जिनको वफ़ा का पास था
दूसरे के दिल पे क्या गुज़रेगी ये एहसास था
अब हैं पत्थर के सनम जिनको एहसास ना हो
वो ज़माना अब कहाँ जो अहल-ए-दिल को रास था
अब तो मतलब के लिए नाम-ए-वफ़ा लेते हैं लोग