भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
छो ("क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite))) |
|||
पंक्ति 2: | पंक्ति 2: | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत | ||
− | |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत | + | |संग्रह= गुंजन / सुमित्रानंदन पंत; पल्लविनी / सुमित्रानंदन पंत |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
11:30, 10 जून 2010 के समय का अवतरण
क्या मेरी आत्मा का चिर-धन?
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन!
प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;
निज सुख से ही चिर चंचल-मन,
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।
मैं प्रेमी उच्चादर्शों का,
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;
लगता अपूर्ण मानव-जीवन,
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।
जग-जीवन में उल्लास मुझे,
नव-आशा, नव-अभिलाष मुझे,
ईश्वर पर चिर-विश्वास मुझे;
चाहिए विश्व को नव-जीवन
मैं आकुल रे उन्मन, उन्मन!
रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२