१.
प्राण का धर्म है साहित्य अध्यवसाय नहींप्राण का धर्म है साहित्य व्यवसाय नहीं
शुद्ध व्यक्तित्व का विभास, सम्प्रदाय नहीं
मोम-सा आप जलो तो प्रकाश फैलेगा
संघ कोई न सभा-मंच, सुहृद्-जाल नहीं
शिष्य, अनुशिष्य नहीं, फूलभरे थाल नहीं
गा रहा हूँ मैं, न जहाँ एक भी न सुननेवालासुर नहीं, साज साज़ नहीं, छंद नहीं, ताल नहीं
३.
साज साज़ कोई कहीं, न है आलाप
न सभासद, न तो मृदंग, न थाप
निष्प्रतिध्वनि मरणपुरी है यह