"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ४" के अवतरणों में अंतर
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− | सुख दुख मय जीवन रेखा।<br /> | + | सुख-दुख मय जीवन रेखा।<br /> |
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संसार तिरोहित होगा<br /> | संसार तिरोहित होगा<br /> | ||
मुड़कर न कभी देखेगा<br /> | मुड़कर न कभी देखेगा<br /> | ||
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मानस जीवन वेदी पर<br /> | मानस जीवन वेदी पर<br /> | ||
परिणय हो विरह मिलन का <br /> | परिणय हो विरह मिलन का <br /> | ||
− | दुख सुख दोनों नाचेंगे<br /> | + | दुख-सुख दोनों नाचेंगे<br /> |
हैं खेल आँख का मन का।<br /> | हैं खेल आँख का मन का।<br /> | ||
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लिपटे सोते थे मन में<br /> | लिपटे सोते थे मन में<br /> | ||
− | सुख दुख दोनों ही ऐसे<br /> | + | सुख-दुख दोनों ही ऐसे<br /> |
चन्द्रिका अँधेरी मिलती<br /> | चन्द्रिका अँधेरी मिलती<br /> | ||
मालती कुंज में जैसे।<br /> | मालती कुंज में जैसे।<br /> | ||
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जैसे बिजली हो घन में।<br /> | जैसे बिजली हो घन में।<br /> | ||
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− | उनका सुख नाच उठा | + | उनका सुख नाच उठा है<br /> |
यह दुख द्रुम दल हिलने से<br /> | यह दुख द्रुम दल हिलने से<br /> | ||
ऋंगार चमकता उनका<br /> | ऋंगार चमकता उनका<br /> | ||
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हो उदासीन दोनों से <br /> | हो उदासीन दोनों से <br /> | ||
− | दुख सुख से मेल कराये<br /> | + | दुख-सुख से मेल कराये<br /> |
ममता की हानि उठाकर<br /> | ममता की हानि उठाकर<br /> | ||
− | दो | + | दो रूठे हुए मनाये।<br /> |
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चढ़ जाय अनन्त गगन पर<br /> | चढ़ जाय अनन्त गगन पर<br /> | ||
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उच्छ्वास और आँसू में<br /> | उच्छ्वास और आँसू में<br /> | ||
− | विश्राम थका सोता | + | विश्राम थका सोता है<br /> |
रोई आँखों में निद्रा<br /> | रोई आँखों में निद्रा<br /> | ||
− | बनकर सपना होता | + | बनकर सपना होता है।<br /> |
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निशि, सो जावें जब उर में<br /> | निशि, सो जावें जब उर में<br /> |
14:50, 17 मई 2007 का अवतरण
लेखक: जयशंकर प्रसाद
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इस रचना का मुखपृष्ठ: आँसू / जयशंकर प्रसाद
यह पारावार तरल हो
फेनिल हो गरल उगलता
मथ डाला किस तृष्णा से
तल में बड़वानल जलता।
निश्वास मलय में मिलकर
छाया पथ छू आयेगा
अन्तिम किरणें बिखराकर
हिमकर भी छिप जायेगा।
चमकूँगा धूल कणों में
सौरभ हो उड़ जाऊँगा
पाऊँगा कहीं तुम्हें तो
ग्रहपथ मे टकराऊँगा।
इस यान्त्रिक जीवन में क्या
ऐसी थी कोई क्षमता
जगती थी ज्योति भरी-सी।
तेरी सजीवता ममता।
हैं चन्द्र हृदय में बैठा
उस शीतल किरण सहारे
सौन्दर्य सुधा बलिहारी
चुगता चकोर अंगारे।
बलने का सम्बल लेकर
दीपक पतंग से मिलता
जलने की दीन दशा में
वह फूल सदृश हो खिलता!
इस गगन यूथिका वन में
तारे जूही से खिलते
सित शतदल से शशि तुम क्यों
उनमे जाकर हो मिलते?
मत कहो कि यही सफलता
कलियों के लघु जीवन की
मकरंद भरी खिल जायें
तोड़ी जाये बेमन की।
यदि दो घड़ियों का जीवन
कोमल वृन्तों में बीते
कुछ हानि तुम्हारी है क्या
चुपचाप चू पड़े जीते!
सब सुमन मनोरथ अंजलि
बिखरा दी इन चरणों में
कुचलो न कीट-सा, इनके
कुछ हैं मकरन्द कणों में।
निर्मोह काल के काले-
पट पर कुछ अस्फुट रेखा
सब लिखी पड़ी रह जाती
सुख-दुख मय जीवन रेखा।
दुख-सुख में उठता गिरता
संसार तिरोहित होगा
मुड़कर न कभी देखेगा
किसका हित अनहित होगा।
मानस जीवन वेदी पर
परिणय हो विरह मिलन का
दुख-सुख दोनों नाचेंगे
हैं खेल आँख का मन का।
इतना सुख ले पल भर में
जीवन के अन्तस्तल से
तुम खिसक गये धीरे-से
रोते अब प्राण विकल से।
क्यों छलक रहा दुख मेरा
ऊषा की मृदु पलकों में
हाँ, उलझ रहा सुख मेरा
सन्ध्या की घन अलकों में।
लिपटे सोते थे मन में
सुख-दुख दोनों ही ऐसे
चन्द्रिका अँधेरी मिलती
मालती कुंज में जैसे।
अवकाश असीम सुखों से
आकाश तरंग बनाता
हँसता-सा छायापथ में
नक्षत्र समाज दिखाता।
नीचे विपुला धरणी हैं
दुख भार वहन-सी करती
अपने खारे आँसू से
करुणा सागर को भरती।
धरणी दुख माँग रही हैं
आकाश छीनता सुख को
अपने को देकर उनको
हूँ देख रहा उस मुख को।
इतना सुख जो न समाता
अन्तरिक्ष में, जल थल में
उनकी मुट्ठी में बन्दी
था आश्वासन के छल में।
दुख क्या था उनको, मेरा
जो सुख लेकर यों भागे
सोते में चुम्बन लेकर
जब रोम तनिक-सा जागे।
सुख मान लिया करता था
जिसका दुख था जीवन में
जीवन में मृत्यु बसी हैं
जैसे बिजली हो घन में।
उनका सुख नाच उठा है
यह दुख द्रुम दल हिलने से
ऋंगार चमकता उनका
मेरी करुणा मिलने से।
हो उदासीन दोनों से
दुख-सुख से मेल कराये
ममता की हानि उठाकर
दो रूठे हुए मनाये।
चढ़ जाय अनन्त गगन पर
वेदना जलद की माला
रवि तीव्र ताप न जलाये
हिमकर को हो न उजाला।
नचती है नियति नटी-सी
कन्दुक-क्रीड़ा-सी करती
इस व्यथित विश्व आँगन में
अपना अतृप्त मन भरती।
सन्ध्या की मिलन प्रतीक्षा
कह चलती कुछ मनमानी
ऊषा की रक्त निराशा
कर देती अन्त कहानी।
"विभ्रम मदिरा से उठकर
आओ तम मय अन्तर में
पाओगे कुछ न,टटोलो
अपने बिन सूने घर में।
इस शिथिल आह से खिंचकर
तुम आओगे-आओगे
इस बढ़ी व्यथा को मेरी
रोओगे अपनाओगे।"
वेदना विकल फिर आई
मेरी चौदहो भुवन में
सुख कहीं न दिया दिखाई
विश्राम कहाँ जीवन में!
उच्छ्वास और आँसू में
विश्राम थका सोता है
रोई आँखों में निद्रा
बनकर सपना होता है।
निशि, सो जावें जब उर में
ये हृदय व्यथा आभारी
उनका उन्माद सुनहला
सहला देना सुखकारी।
तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी
नन्दन तमाल के तल से
जग छा दो श्याम-लता-सी
तन्द्रा पल्लव विह्वल से।