भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"रहस्य / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
छो
छो
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 
लेखक: [[जयशंकर प्रसाद]]
 
लेखक: [[जयशंकर प्रसाद]]
 +
 
[[Category:कविताएँ]]
 
[[Category:कविताएँ]]
 +
 
[[Category: जयशंकर प्रसाद]]
 
[[Category: जयशंकर प्रसाद]]
 +
  
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
 
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
पंक्ति 150: पंक्ति 153:
  
 
मर-मर कर जीते ही बनता  
 
मर-मर कर जीते ही बनता  
 +
 +
 +
यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,
 +
 +
जला-जला कर नित्य ढालती,
 +
 +
चोट सहन कर रुकने वाली धातु,
 +
 +
न जिसको मृत्यु सालती।
 +
 +
 +
वर्षा के घन नाद कर रहे,
 +
 +
तट-कूलों को सहज गिराती,
 +
 +
प्लावित करती वन कुंजों को,
 +
 +
लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"
 +
 +
 +
"बस अब ओर न इसे दिखा तू,
 +
 +
यह अति भीषण कर्म जगत है,
 +
 +
श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,
 +
 +
जैसे पुंजीभूत रजत है।"
 +
 +
 +
"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,
 +
 +
सुख-दुख से है उदासीनत,
 +
 +
यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,
 +
 +
बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।
 +
 +
 +
अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,
 +
 +
ये अणु तर्क-युक्ति से,
 +
 +
ये निस्संग, किंतु कर लेते,
 +
 +
कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।
 +
 +
 +
यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,
 +
 +
तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,
 +
 +
बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,
 +
 +
प्यास लगी है ओस चाटती।
 +
 +
 +
न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,
 +
 +
प्राणी चमकीले लगते,
 +
 +
इस निदाघ मरु में, सूखे से,
 +
 +
स्रोतों के तट जैसे जगते।
 +
 +
 +
मनोभाव से काय-कर्म के
 +
 +
समतोलन में दत्तचित्त से,
 +
 +
ये निस्पृह न्यायासन वाले,
 +
 +
चूक न सकते तनिक वित्त से
 +
 +
 +
अपना परिमित पात्र लिये,
 +
 +
ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,
 +
 +
माँग रहे हैं जीवन का रस,
 +
 +
बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।
 +
 +
 +
यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,
 +
 +
अधिकारों की व्याख्या करता,
 +
 +
यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,
 +
 +
अपनी ढीली साँसे भरता।
 +
 +
 +
उत्तमता इनका निजस्व है,
 +
 +
अंबुज वाले सर सा देखो,
 +
 +
जीवन-मधु एकत्र कर रही,
 +
 +
उन सखियों सा बस लेखो।
 +
 +
  
  

14:55, 28 मार्च 2007 का अवतरण

लेखक: जयशंकर प्रसाद


~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~


चिर-वसंत का यह उदगम है,

पतझर होता एक ओर है,

अमृत हलाहल यहाँ मिले है,

सुख-दुख बँधते, एक डोर हैं।"


"सुदंर यह तुमने दिखलाया,

किंतु कौन वह श्याम देश है?

कामायनी बताओ उसमें,

क्या रहस्य रहता विशेष है"


"मनु यह श्यामल कर्म लोक है,

धुँधला कुछ-कुछ अधंकार-सा

सघन हो रहा अविज्ञात

यह देश, मलिन है धूम-धार सा।


कर्म-चक्र-सा घूम रहा है,

यह गोलक, बन नियति-प्रेरणा,

सब के पीछे लगी हुई है,

कोई व्याकुल नयी एषणा।


श्रममय कोलाहल, पीडनमय,

विकल प्रवर्तन महायंत्र का,

क्षण भर भी विश्राम नहीं है,

प्राण दास हैं क्रिया-तंत्र का।


भाव-राज्य के सकल मानसिक,

सुख यों दुख में बदल रहे हैं,

हिंसा गर्वोन्नत हारों में ये,

अकडे अणु टहल रहे हैं।


ये भौतिक संदेह कुछ करके,

जीवित रहना यहाँ चाहते,

भाव-राष्ट्र के नियम यहाँ पर,

दंड बने हैं, सब कराहते।


करते हैं, संतोष नहीं है,

जैसे कशाघात-प्रेरित से-

प्रति क्षण करते ही जाते हैं,

भीति-विवश ये सब कंपित से।


नियाते चलाती कर्म-चक्र यह,

तृष्णा-जनित ममत्व-वासना,

पाणि-पादमय पंचभूत की,

यहाँ हो रही है उपासना।


यहाँ सतत संघर्ष विफलता,

कोलाहल का यहाँ राज है,

अंधकार में दौड लग रही

मतवाला यह सब समाज है।


स्थूल हो रहे रूप बनाकर,


कर्मों की भीषण परिणति है,

आकांक्षा की तीव्र पिपाशा

ममता की यह निर्मम गति है।


यहाँ शासनादेश घोषणा,

विजयों की हुंकार सुनाती,

यहाँ भूख से विकल दलित को,

पदतल में फिर फिर गिरवाती।


यहाँ लिये दायित्व कर्म का,

उन्नति करने के मतवाले,

जल-जला कर फूट पड रहे

ढुल कर बहने वाले छाले।


यहाँ राशिकृत विपुल विभव सब,

मरीचिका-से दीख पड रहे,

भाग्यवान बन क्षणिक भोग के वे,

विलीन, ये पुनः गड रहे।


बडी लालसा यहाँ सुयश की,

अपराधों की स्वीकृति बनती,

अंध प्रेरणा से परिचालित,

कर्ता में करते निज गिनती।


प्राण तत्त्व की सघन साधना जल,

हिम उपलयहाँ है बनता,

पयासे घायल हो जल जाते,

मर-मर कर जीते ही बनता


यहाँ नील-लोहित ज्वाला कुछ,

जला-जला कर नित्य ढालती,

चोट सहन कर रुकने वाली धातु,

न जिसको मृत्यु सालती।


वर्षा के घन नाद कर रहे,

तट-कूलों को सहज गिराती,

प्लावित करती वन कुंजों को,

लक्ष्य प्राप्ति सरिता बह जाती।"


"बस अब ओर न इसे दिखा तू,

यह अति भीषण कर्म जगत है,

श्रद्धे वह उज्ज्वल कैसा है,

जैसे पुंजीभूत रजत है।"


"प्रियतम यह तो ज्ञान क्षेत्र है,

सुख-दुख से है उदासीनत,

यहाँ न्याय निर्मम, चलता है,

बुद्धि-चक्र, जिसमें न दीनता।


अस्ति-नास्ति का भेद, निरंकुश करते,

ये अणु तर्क-युक्ति से,

ये निस्संग, किंतु कर लेते,

कुछ संबंध-विधान मुक्ति से।


यहाँ प्राप्य मिलता है केवल,

तृप्ति नहीं, कर भेद बाँटती,

बुद्धि, विभूति सकल सिकता-सी,

प्यास लगी है ओस चाटती।


न्याय, तपस्, ऐश्वर्य में पगे ये,

प्राणी चमकीले लगते,

इस निदाघ मरु में, सूखे से,

स्रोतों के तट जैसे जगते।


मनोभाव से काय-कर्म के

समतोलन में दत्तचित्त से,

ये निस्पृह न्यायासन वाले,

चूक न सकते तनिक वित्त से


अपना परिमित पात्र लिये,

ये बूँद-बूँद वाले निर्झर से,

माँग रहे हैं जीवन का रस,

बैठ यहाँ पर अजर-अमर-से।


यहाँ विभाजन धर्म-तुला का,

अधिकारों की व्याख्या करता,

यह निरीह, पर कुछ पाकर ही,

अपनी ढीली साँसे भरता।


उत्तमता इनका निजस्व है,

अंबुज वाले सर सा देखो,

जीवन-मधु एकत्र कर रही,

उन सखियों सा बस लेखो।




'''''-- Done By: Dr.Bhawna Kunwar'''''