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"लालच / मदन कश्यप" के अवतरणों में अंतर

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कभी-कभी मैं दौड़ पड़ता कि निकल जाऊँ उससे आगे  
 
कभी-कभी मैं दौड़ पड़ता कि निकल जाऊँ उससे आगे  

21:42, 5 जून 2010 का अवतरण

कभी-कभी मैं दौड़ पड़ता कि निकल जाऊँ उससे आगे
कभी-कभी एकदम रूक जाता
वही निकल जाए इतना आगे कि दिखे नहीं
लेकिन वह था कि आगा ही नहीं छोड़ता
उस छाया सरीखे जो सूरज के पीठ पर होते ही
चलने लगती है आगे-आगे
(हो सकता है यह सही नहीं हो
मैं ही उसका पीछा छोड़ नहीं पा रहा होऊँ)

कभी वह उत्तेजक और आकर्षक लगता
तो कभी घृणित और डरावना
पर हर हाल में मैं चलता जाता था
उसके पीछे-पीछे!