"लड़की का घर / मदन कश्यप" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार= मदन | + | |रचनाकार = मदन कश्यप |
− | |संग्रह= नीम रोशनी में / मदन | + | |संग्रह = नीम रोशनी में / मदन कश्यप |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
10:14, 6 जून 2010 के समय का अवतरण
घर में पैदा होती है लड़की
और बार-बार जकड़ी जाती है
घर में ही रहने की हिदायतों से
फिर भी घर नहीं होता लड़की का / कोई
बस एक सपना होता है
कि एक घर उसका भी होगा / पति का घर
सपना देखती है लड़की
अपने गाँव के सबसे बड़े घर से भी बड़े घर का
पास बुलाते दरवाजे
मुस्कुराती हुई खिड़कियाँ
माँ के आँचल-सी स्नेहिल दीवारें
लड़की के कोमल सपनों में होता है सपने-सा कोमल घर
दऊरे में महावरी पांव रखती
जहाँ पहुँचती है लड़की
वहाँ घर नहीं होता
वहाँ होते हैं
मजबूत साँकलों वाले दरवाजे
कभी न खुलने वाली खिड़कियाँ
लोहे की तरह ठंडी दीवारें
जलता धुआंता बुझता चूल्हा
कच्ची मोरी के पास एक घिसा हुआ पत्थर
और कुछ अंधेरे कोने
जहाँ कुछ अंधेरे कोने
जहाँ बैठकर करूण उसांसों के बीच
अपने लड़कपन के सपने उघेड़ती है लड़की
जितना बड़ा होता है घर
उतना ही छोटा होता है स्त्री का कोना!