"सद्भावना / विजय कुमार पंत" के अवतरणों में अंतर
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सुलगने लगी है झाड़ - फूंस.. | सुलगने लगी है झाड़ - फूंस.. | ||
सुना है तुम भी पैनी कर रहे हो | सुना है तुम भी पैनी कर रहे हो | ||
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जानते हो क्यों.. | जानते हो क्यों.. | ||
क्योंकि .. | क्योंकि .. | ||
− | तुम्हारा अहं है.. | + | तुम्हारा अहं है.. सारथी.. |
तुम्हारी बुद्धि का.. | तुम्हारी बुद्धि का.. | ||
तुम्हारी पिपासा ने | तुम्हारी पिपासा ने | ||
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अपशब्दों.. | अपशब्दों.. | ||
और अस्त्रों से | और अस्त्रों से | ||
− | सामर्थ्य.. | + | सामर्थ्य.. सद्भाव.. और विचार नहीं.. |
केवल शरीर मरता है.. | केवल शरीर मरता है.. | ||
फिर भी तुम | फिर भी तुम | ||
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मैं संभावना हूँ.. | मैं संभावना हूँ.. | ||
मैं एक शरीर... एक संगठन... एक विचार नहीं.. | मैं एक शरीर... एक संगठन... एक विचार नहीं.. | ||
− | "सृजन और सहयोग" की | + | "सृजन और सहयोग" की सद्भावना हूँ |
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14:49, 8 जून 2010 का अवतरण
फिर से
उड़ने लगा है धुआँ ..
सुलगने लगी है झाड़ - फूंस..
सुना है तुम भी पैनी कर रहे हो
तलवार की धार..
जो अक्सर टूट गयी मूठ से
तुम भागते रहे..फिर जुड़े
युद्घ क्षेत्र की तरफ मुड़े..
फिर हारे फिर भागे
फिर से तुमको कहा गया
अभागे..
जानते हो क्यों..
क्योंकि ..
तुम्हारा अहं है.. सारथी..
तुम्हारी बुद्धि का..
तुम्हारी पिपासा ने
क्षीण कर दिया है..
तुम्हारी दृष्टि को...
तुम जानते तो हो... पर
प्रभाव ही है..जो तुमको पंगु बना देता है..
मूर्ख हो तुम...
अपशब्दों..
और अस्त्रों से
सामर्थ्य.. सद्भाव.. और विचार नहीं..
केवल शरीर मरता है..
फिर भी तुम
ऐसे तुच्छ कार्य करते हो..
अपने अहं और अज्ञान से डरो..
मुझसे क्यों डरते हो..
मैं अमर हूँ,
मैं नशवर हूँ,
मैं संभावना हूँ..
मैं एक शरीर... एक संगठन... एक विचार नहीं..
"सृजन और सहयोग" की सद्भावना हूँ