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"पपीहा और चील-कौए / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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था पपीहे का बसेरा,
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अब वहाँ पर
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चील कौए ने
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लिया है डाल डेरा
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संकुचित उनकी निगाहें
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सिर्फ नीचे को
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लगी रहती निरंतर।
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उनके परों से
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और मँडलाते
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बना छोटी परिधि ऐसी
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कि उसके बीच
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मेरा प्राण
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घुटता जा रहा है।
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और, मुझको
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देखते वे इस तरह
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जैसे कि मैं
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आहार उनका छोड़कर
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कुछ भी नहीं हूँ।
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और मुझमें
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अब नहीं ताक़त
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कि उनकी गर्दनों को तोड़ दूँ मैं,
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याकि उनके पर मड़ोड़ूँ।
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पर लिए अरमान हूँ मैं :
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फिर पपीहा लौट आए,
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फिर असंभव प्‍यास
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प्राणें में जाएगा,
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फिर अखंड-अनंत नभ के बीच
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ले जाकर भ्रमाए,
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फिर प्रतीक्षा,
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फिर अमर विश्‍वास के
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वह गीत गाए,
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पी-कहाँ की रट लगाए;
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काल से संग्राम,
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जग के हास,
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जीवन की निराशा
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के लिए तैयार
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फिर होना सिखाए।
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पालना उर में
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पपीहे का कठिन है
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चील कौए का, कठिनतर
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पर कठिनतम
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रक्‍त, मज्‍जा,
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मांस अपना
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चील कौए को खिलाना
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साथ पानी
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स्‍वप्‍न स्‍वाती का
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पपीहे को पिलाना।
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और, अपने को
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विभाजित इस तरह करना
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कि दोनों अंग
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रहकर संग भी
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बिलकुल अलग,
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विपरीत बिलकुल,
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शत्रु आपस में
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बने हों।
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तुम अगर इंसान हो तो
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इस विभाजन,
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इस लड़ाई
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से अपरिचित हो नहीं तुम।
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धृष्‍ठता हो माफ़
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मैंने जो तुम्‍हारी,
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या कि अपनी डायरी से
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पंक्‍त‍ि‍या कुछ आज
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उद्धृत कीं यहाँ पर।

22:37, 18 जून 2010 का अवतरण


मैं पपीहे की

पिपासा, खोज, आशा

औ' विकट विश्‍वास पर

पलती प्रतीक्षा

और उस पर व्‍यंग्‍य-सा करती

निराशा

और उसकी चील-कौए से चले

जीवनमरण संघर्ष की लंबी कहानी

कह रहा हूँ,

किंतु उससे क्‍यों

तुम्‍हारा दिल धड़कता

किंतु उससे क्‍यों

तुम्‍हें रोमांच होता,

तुम्‍हें लगता कि कोईखोलकर पन्‍ने तुम्‍हारी डायरी के

पढ़ रहा है?

मैं बताता हूँ,

पपीहा

है बड़ा अद्भुत विहंगम।

यह कहीं घूमे,

गगन, गिरि, घाटियों में,

घन तराई में, खुले मैदान,

खेतों में, हरे सुखे,

समुंदर तीर,

नदियों के कछारे,

निर्झरों के तट,

सरोवर के किनारे,

बाग़, बंजर, बस्तियों पर,

उच्‍च प्रसादों

कि नीचे छप्‍परों पर;

यह कहीं घूमें, उड़े,

चारा चुगे

नारा लगाए

पी कहाँ का,

पर बनाता

घोंसला अपना सदा यह,

भावनाओं के जुटा खर-पात,

केवल मानवों की छातियों में।


मैं धरणि की धूलि से निर्मित,

धरणि की धूलि में लिपटता,

सना,

पागल बना-सा

प्‍यास अपनी

शांत करने के लिए क्‍यों

छानता आकाश रहता?

(भूमि की करता अवज्ञा

तीन-चौथाई सलिल से

जो ढकी है)

हाथ क्‍या आता?

हँसी अपनी कराता।

क्‍यों परिधि अपनी

नहीं पहचान पाता?


साफ़ है,

पापी पपीहे ने

लगाया घोंसला मेरे हृदय में।


बहुत समझाया

उसे मैंने,

न पी की बोल बोली,

किंतु दीवाना

न माना;

एक दीन मैंने मरोड़े

पंख उसके,

तोड़ दी गर्दन,

बहुत वह फड़फड़ाया,

वच न पाया,

बच न पाया।

किंतु मरते वक्‍त

इतना कह गया :

किसने मुझे मारा,

मरा भी मैं कहाँ,

मैं तो तुम्‍हारे

प्राण की हूँ प्रतिध्‍वनि,

वह जहाँ मुखरित हुआ,

मैं फिर जिया।

शून्‍य कोई भी जगह

रहने नहीं पाती

बहुत दिन इस जगत में।

जिस जगह पर

था पपीहे का बसेरा,

अब वहाँ पर

चील कौए ने

लिया है डाल डेरा

संकुचित उनकी निगाहें

सिर्फ नीचे को

लगी रहती निरंतर।

कुछ नहीं वे

माँगते या जाँचते

ऐसा कि जो

उनके परों से

नप न पाए,

तुल न पाए,

ढक न जाए।

और मँडलाते

बना छोटी परिधि ऐसी

कि उसके बीच

सीमीत, संकुचित, संपुटित

मेरा प्राण

घुटता जा रहा है।

और, मुझको

देखते वे इस तरह

जैसे कि मैं

आहार उनका छोड़कर

कुछ भी नहीं हूँ।

और मुझमें

अब नहीं ताक़त

कि उनकी गर्दनों को तोड़ दूँ मैं,

याकि उनके पर मड़ोड़ूँ।

पर लिए अरमान हूँ मैं :

फिर पपीहा लौट आए,

फिर असंभव प्‍यास

प्राणें में जाएगा,

फिर अखंड-अनंत नभ के बीच

ले जाकर भ्रमाए,

फिर प्रतीक्षा,

फिर अमर विश्‍वास के

वह गीत गाए,

पी-कहाँ की रट लगाए;

काल से संग्राम,

जग के हास,

जीवन की निराशा

के लिए तैयार

फिर होना सिखाए।


पालना उर में

पपीहे का कठिन है

चील कौए का, कठिनतर

पर कठिनतम

रक्‍त, मज्‍जा,

मांस अपना

चील कौए को खिलाना

साथ पानी

स्‍वप्‍न स्‍वाती का

पपीहे को पिलाना।

और, अपने को

विभाजित इस तरह करना

कि दोनों अंग

रहकर संग भी

बिलकुल अलग,

विपरीत बिलकुल,

शत्रु आपस में

बने हों।


तुम अगर इंसान हो तो

इस विभाजन,

इस लड़ाई

से अपरिचित हो नहीं तुम।

धृष्‍ठता हो माफ़

मैंने जो तुम्‍हारी,

या कि अपनी डायरी से

पंक्‍त‍ि‍या कुछ आज

उद्धृत कीं यहाँ पर।