भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब / नईम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |संग्रह= }} {{KKCatNavgeet}} <poem> किसकी कुशल-क्षेम पूछें अ…)
 
पंक्ति 34: पंक्ति 34:
 
जूड़े में अपनापन खोंसें ।
 
जूड़े में अपनापन खोंसें ।
  
:किसकी कुशल क्षेम पूछे अब,
+
:किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
 
:किसको
 
:किसको
 
:अपनी पीर परोसें ।
 
:अपनी पीर परोसें ।
 
</poem>
 
</poem>

09:37, 29 जून 2010 का अवतरण

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ?
किसको कहाँ
असीसें भेजें
किस-किस की चुप्पी को कोसें ?

फिक्रमंद इन-उनकी ख़ातिर
अपनी ही गो ख़बर नहीं है ।
समय रूक गया है पहाड़-सा
बजता कोई गजर नहीं है ।
पहचाने खो गई हमारी
किनको छोड़ें, किन्हें भरोसें ?

रकबे बचे रह गए थे जो
इस सीलिंग, उस चकबंदी से,
लाख जतनकर बचा न पाए
हम एरावत औ’ नंदी से ।
रखवाले सो रहे तानकर -
प्रजातंत्र को कैसे दोषें ?

प्राणों पर बन आए उजागर
शरद, शिशिर हेमंतों के दिन,
विगर पूछते - हमसे बैठे
थानेदार बसंतों के दिन ।
अब न रहीं वो रितुएँ जिनके
जूड़े में अपनापन खोंसें ।

किसकी कुशल-क्षेम पूछें अब,
किसको
अपनी पीर परोसें ।