भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"शहर के विरूद्ध / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: <poem>बहुत कुछ पाने की चाह में सब कुछ गंवा बैठा रामअवतार। रामअवतार; ए…)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<poem>बहुत कुछ पाने की चाह में
+
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=ओम पुरोहित कागद 
 +
|संग्रह=आदमी नहीं हैं / ओम पुरोहित कागद
 +
}}
 +
{{KKCatKavita‎}}
 +
<Poem>
 +
बहुत कुछ पाने की चाह में
 
सब कुछ गंवा बैठा
 
सब कुछ गंवा बैठा
 
रामअवतार।
 
रामअवतार।

02:15, 20 जुलाई 2010 का अवतरण

बहुत कुछ पाने की चाह में
सब कुछ गंवा बैठा
रामअवतार।
रामअवतार;
एक चौकीदार
जो रात को जागता है
और भरी दोपहरी में सपने देखता है।
बुजुर्ग कहते हैं
सफेदझक दोपहरी के सपने
कभी साकार नहीं होते
लेकिन सपने देखना
उसकी मजबूरी है।
जब वह जागता है
कहने को दुनिया सोती है
मगर रात भर वह देखता है
लोग कैसे कुलबुलाते हैं?
और
कैसे हो जाते हैं लोग
अलकतरा से भी काले,
जहरीले नाग से भी नंगे!
सोने के उस वक्त
बचाव दस्ते के लोग
कैसे नियोजित करते हैं दंगे?
राम अवतार
लाठी ठोकता
बहुत कहता है
जागते रहो!
मगर
शहर है कि, आंख खुली होने पर भी
बहुत सोता है
रोता है
राम अवतार का चौकीदार
शहर के विरूद्ध
रचे जा रहे
लगातार षड्यंत्र को देखकर
रामअवतार की मुठ्ठी
बहुत कसती है
मगर लाठी की हद
नहीं लाघं पाती।
लोग हैं कि,सोये हैं चैन से
नगं-धडंग पलगों पर
मगर
राम अवतार को इंतजार है,
रात सरीखी भोर का।