"चाहता हूँ पागल भीड़... / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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+ | रेंगते-फुफकारते जुलूसों को | ||
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+ | मुझे दु:ख है | ||
+ | कि चारादीवारियों के अन्धखोह में | ||
+ | घुटती-घुलती भीड़ की गुमासुमाहट | ||
+ | क़त्ल कर देगी | ||
+ | हर अच्छे पल को | ||
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+ | मैं उससे करता हूँ आह्वान-- | ||
+ | जागो, उठो | ||
+ | बेतहाशा भागो! | ||
+ | उन कब्रिस्तानी राजमार्गों पर, | ||
+ | जा धमाको | ||
+ | खूंखार आरामगाहों में | ||
+ | जहां मौज-मस्ती के नाम पर | ||
+ | हो रहा है-- | ||
+ | यातनाओं का साधारणीकरण, | ||
+ | अपाहिज औरतें, दुधमुंही बच्चियां | ||
+ | यंत्रवत गुजर रही हैं | ||
+ | बलात्कार-चक्र से, | ||
+ | शिशु चलाकर घुटनों से | ||
+ | ढो रहे हैं | ||
+ | ईंट, गारे, सरिए | ||
+ | और तरस रहे हैं | ||
+ | उन छायादार छतों के लिए | ||
+ | जिन्हें उन्होंने | ||
+ | टांग दिया है | ||
+ | हवा में | ||
+ | बड़ी मज़बूती से | ||
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+ | मैं दीवारों के पीछे | ||
+ | चौंधियाते बुद्धू बक्से पर | ||
+ | टंकी-टिकी | ||
+ | पथराई आँखें भीड़ की | ||
+ | गुहार रहा हूं, | ||
+ | वह आँखों की मशाल सुलगाकर | ||
+ | छाप ले भरभराकर | ||
+ | ऐय्याश राजमार्गों को, | ||
+ | उमड़ पड़े समवेत | ||
+ | हरामखोर प्रासादों की ओर | ||
+ | और आदमखोरों को मसल दे | ||
+ | सरेआम क़दमों तले | ||
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+ | जबकि सारा राष्ट्र तब्दील हो चुका है | ||
+ | एक लम्पट लाक्षागृह में | ||
+ | और तुम हर पल | ||
+ | इस राजपोषित यातनाघर में | ||
+ | घड़ियाली जबड़ों के बीच | ||
+ | पलीद होते जा रहे हो, | ||
+ | तुम अहसास करो | ||
+ | और सिर्फ एहसास करो-- | ||
+ | घड़ियाली दांतों की चुभन | ||
+ | और चुभन का विघातक दर्द | ||
+ | जो उधेड़ेगा | ||
+ | तुम्हारे चेतना-पर्त, | ||
+ | तब, तुम पागल दौड़ पड़ोगे | ||
+ | गुत्थमगुत्थ | ||
+ | उन दुर्दांत दांतों को | ||
+ | जड़ से उखाड़ फेंकने | ||
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+ | मैं भैरवी तान में | ||
+ | करता हूँ तुम्हारा | ||
+ | पुरजोर आह्वान-- | ||
+ | कि एक रणनीति से रचो | ||
+ | एक भीड़ | ||
+ | बेशक, ऊब से | ||
+ | बौराई-बौखलाई भीड़, | ||
+ | घर-घर से कण-कण जमा हो | ||
+ | एकजुट बनो, | ||
+ | सख्त आग्नेय चट्टान बनो | ||
+ | अमोघ वज्रास्त्र बनो | ||
+ | और बरप पड़ो | ||
+ | तदित कहर बन | ||
+ | श्वेत दैत्यों के ऐशागाहों पर | ||
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+ | खौफनाक राजदंशों से | ||
+ | भीड़ का पागल होना | ||
+ | यानी षड्यंत्रगत नृशंसताओं से | ||
+ | आज़ाद होना है, | ||
+ | ऐतिहासिक दासत्त्व का | ||
+ | छू-मंतर होना है | ||
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+ | हां, मैं चाहता हूँ | ||
+ | एक ईमानदार भीड़, | ||
+ | एक न्यायप्रिय भीड़, | ||
+ | एक विवेकशील भीड़, | ||
+ | क्योंकि ऐसे में | ||
+ | पागल-सी लगती भीड़ में | ||
+ | पागलपन नहीं होता, | ||
+ | उसके कण-कण में | ||
+ | एक गंतव्य | ||
+ | छिपा होता होता है, | ||
+ | दमित आशाओं का | ||
+ | मुखर होना बड़ा होता है | ||
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+ | हां, नहीं रहा | ||
+ | कोई जनप्रिय तंत्र यहां, | ||
+ | नारे लगाकर | ||
+ | इश्तेहार-पर्चे बांटकर | ||
+ | गांधी-अम्बेडकर की दोहाई देकर | ||
+ | मंचित किया जाता रहा है | ||
+ | एक लोकतांत्रिक स्वांग | ||
+ | जिसे भीड़तंत्र कर दे अभी ख़त्म | ||
+ | और प्रयाण करे वहां | ||
+ | राष्ट्रभक्ति के मुहावरेदार जुमले | ||
+ | सुना-सुना जहां | ||
+ | चिपके हुए हैं 'वैम्पायर' जोंक | ||
+ | कामधेनु-सरीखे आयोगों-समितियों से, | ||
+ | बना लिया है | ||
+ | अपना मुस्तकिल नीड़ | ||
+ | फाइलों के भीतर | ||
+ | दिग्गज परियोजनाओं में | ||
+ | |||
+ | आधी सदी से | ||
+ | सनकी कुम्हारों के हाथों | ||
+ | दमन-चाक पर विवश नाचती, | ||
+ | खुद के हिज्जे-हिज्जे सम्हालती, | ||
+ | आखिर, भीड़ अपने मोहबंधन | ||
+ | तोड़ेगी कब, | ||
+ | विवेक का पिटारा | ||
+ | खोलेगी कब? | ||
+ | |||
+ | आधी सदी से | ||
+ | वर्णमाला विफल रही है | ||
+ | आज़ादी के मायने समझाने में, | ||
+ | बेशक! तुम फेंक दो | ||
+ | स्लेट, पेन्सिल, किताब-कापियां, | ||
+ | नव-दासत्त्व की पीड़ा ही काफी है | ||
+ | तुम्हें पोथियों का सार बताने को. |
12:52, 8 जुलाई 2010 का अवतरण
चाहता हूँ पागल भीड़
मुझे अथाह विषाद है
भीड़ के जनानेपन पर,
वह बालकनियों पर
बैठी देख रही है
रेंगते-फुफकारते जुलूसों को
मुझे दु:ख है
कि चारादीवारियों के अन्धखोह में
घुटती-घुलती भीड़ की गुमासुमाहट
क़त्ल कर देगी
हर अच्छे पल को
मैं उससे करता हूँ आह्वान--
जागो, उठो
बेतहाशा भागो!
उन कब्रिस्तानी राजमार्गों पर,
जा धमाको
खूंखार आरामगाहों में
जहां मौज-मस्ती के नाम पर
हो रहा है--
यातनाओं का साधारणीकरण,
अपाहिज औरतें, दुधमुंही बच्चियां
यंत्रवत गुजर रही हैं
बलात्कार-चक्र से,
शिशु चलाकर घुटनों से
ढो रहे हैं
ईंट, गारे, सरिए
और तरस रहे हैं
उन छायादार छतों के लिए
जिन्हें उन्होंने
टांग दिया है
हवा में
बड़ी मज़बूती से
मैं दीवारों के पीछे
चौंधियाते बुद्धू बक्से पर
टंकी-टिकी
पथराई आँखें भीड़ की
गुहार रहा हूं,
वह आँखों की मशाल सुलगाकर
छाप ले भरभराकर
ऐय्याश राजमार्गों को,
उमड़ पड़े समवेत
हरामखोर प्रासादों की ओर
और आदमखोरों को मसल दे
सरेआम क़दमों तले
जबकि सारा राष्ट्र तब्दील हो चुका है
एक लम्पट लाक्षागृह में
और तुम हर पल
इस राजपोषित यातनाघर में
घड़ियाली जबड़ों के बीच
पलीद होते जा रहे हो,
तुम अहसास करो
और सिर्फ एहसास करो--
घड़ियाली दांतों की चुभन
और चुभन का विघातक दर्द
जो उधेड़ेगा
तुम्हारे चेतना-पर्त,
तब, तुम पागल दौड़ पड़ोगे
गुत्थमगुत्थ
उन दुर्दांत दांतों को
जड़ से उखाड़ फेंकने
मैं भैरवी तान में
करता हूँ तुम्हारा
पुरजोर आह्वान--
कि एक रणनीति से रचो
एक भीड़
बेशक, ऊब से
बौराई-बौखलाई भीड़,
घर-घर से कण-कण जमा हो
एकजुट बनो,
सख्त आग्नेय चट्टान बनो
अमोघ वज्रास्त्र बनो
और बरप पड़ो
तदित कहर बन
श्वेत दैत्यों के ऐशागाहों पर
खौफनाक राजदंशों से
भीड़ का पागल होना
यानी षड्यंत्रगत नृशंसताओं से
आज़ाद होना है,
ऐतिहासिक दासत्त्व का
छू-मंतर होना है
हां, मैं चाहता हूँ
एक ईमानदार भीड़,
एक न्यायप्रिय भीड़,
एक विवेकशील भीड़,
क्योंकि ऐसे में
पागल-सी लगती भीड़ में
पागलपन नहीं होता,
उसके कण-कण में
एक गंतव्य
छिपा होता होता है,
दमित आशाओं का
मुखर होना बड़ा होता है
हां, नहीं रहा
कोई जनप्रिय तंत्र यहां,
नारे लगाकर
इश्तेहार-पर्चे बांटकर
गांधी-अम्बेडकर की दोहाई देकर
मंचित किया जाता रहा है
एक लोकतांत्रिक स्वांग
जिसे भीड़तंत्र कर दे अभी ख़त्म
और प्रयाण करे वहां
राष्ट्रभक्ति के मुहावरेदार जुमले
सुना-सुना जहां
चिपके हुए हैं 'वैम्पायर' जोंक
कामधेनु-सरीखे आयोगों-समितियों से,
बना लिया है
अपना मुस्तकिल नीड़
फाइलों के भीतर
दिग्गज परियोजनाओं में
आधी सदी से
सनकी कुम्हारों के हाथों
दमन-चाक पर विवश नाचती,
खुद के हिज्जे-हिज्जे सम्हालती,
आखिर, भीड़ अपने मोहबंधन
तोड़ेगी कब,
विवेक का पिटारा
खोलेगी कब?
आधी सदी से
वर्णमाला विफल रही है
आज़ादी के मायने समझाने में,
बेशक! तुम फेंक दो
स्लेट, पेन्सिल, किताब-कापियां,
नव-दासत्त्व की पीड़ा ही काफी है
तुम्हें पोथियों का सार बताने को.