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एक के बाद एक नया रंग बनाता | एक के बाद एक नया रंग बनाता | ||
फिर उसने एक अनुपम रंग चुना | फिर उसने एक अनुपम रंग चुना | ||
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परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा । | परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा । | ||
− | उसने पराजय न स्वीकारी | + | '''उसने''' |
+ | पराजय न स्वीकारी | ||
रचनाधर्मी था | रचनाधर्मी था | ||
रचना रूपी गांडीव पुन: उठाया उसने | रचना रूपी गांडीव पुन: उठाया उसने | ||
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परन्तु.... फ़िर भी वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा । | परन्तु.... फ़िर भी वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा । | ||
− | वह यकायक गायब हो गया | + | '''वह''' |
+ | यकायक गायब हो गया | ||
उसका कुछ न पता चला | उसका कुछ न पता चला | ||
कि वह कहाँ गया, क्या हुआ? | कि वह कहाँ गया, क्या हुआ? |
02:33, 10 जुलाई 2010 के समय का अवतरण
उसने
एक सुर चुना
और अपरिमित भावों को भर कर
मानव जीवन के सभी उद्दात प्रसंगों से सजा कर
विकृति और विद्रूपताओं से बचा कर
एक अति सुंदर गीत रचा
पुलकित मन के साथ एक दिन
उसने, वह गीत उसे सुनाया
परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा|
वह
पुन: लग गया
रचनाधर्म की एक नई इकाई की खोज में
किया चयन एक राग का
और एक अद्वितीय मधुर धुन की रचना की
जिसे पक्षी भी सुने तो सुन्न रह जाए
कर्ण प्रिय, शहद सी मीठी
सुनकर जिसे, जीवन उल्लास से भर जाए
और एक दिन
पूर्ण तर्पण के साथ
उसने, वह संगीत उसे सुनाया
परन्त.... वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
वह
एक बार पुन: खो गया
रचना के बहुआयामी सागर में
फिर उसने खोजी
एक अद्भुत नृत्य-कला
वर्षों के अभ्यासोपरांत
जब उसने प्राप्त की ऐसी निपुणता
कि जो उसे देखे तो समयविहीन हो जाए
अदम्य विश्वास से भर
फिर एक दिन
पूर्ण एकाग्रता के साथ
उसने, भेंट किया उसे अपना उत्कृष्ट नृत्य
परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह ही खडा रहा ।
पुनः उसने चुना एक अनछुआ कथ्य
स्मृति में जो रच-बस जाए
संवेगों में जो मिश्री की तरह रम जाए
डाकू भी पढे तो कालीदास बन जाए
ऐसी कहानी लिखी
और एक दिन
उसने, वह कहानी उसे सुनाई
परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह ही खड़ा रहा।
वह
पुनः गया, एक नई रचना की खोज में
एक के बाद एक नया रंग बनाता
फिर उसने एक अनुपम रंग चुना
और भर दिया एक चित्र में
कि कोई भी उसे देखे
तो अवाक रह जाए
विस्मित हो देखता रहे अपलक
और एक दिन
पूर्ण आप्यायन आग्रह युक्त
उसने, वह चित्र उसे दिखाया
परन्तु.... वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
उसने
पराजय न स्वीकारी
रचनाधर्मी था
रचना रूपी गांडीव पुन: उठाया उसने
एकत्र किये बहुमूल्य भूमिकण, मिट्टी और अन्य तत्व
अनवरत परिश्रम के बाद
बनाई उसने एक मूर्ति
जिसे अभी तक न बना सका था कोई
सुंदरता की पराकाष्ठा
मानवीय परिकल्पनाओं से परे
चिर सजीव
और एक दिन
पूर्ण मनन के साथ
उसने, वह मूर्ति उसे दिखाई
परन्तु.... फ़िर भी वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
वह
यकायक गायब हो गया
उसका कुछ न पता चला
कि वह कहाँ गया, क्या हुआ?
परन्तु अचानक एक दिन
वह उसके सामने फ़िर प्रकट हुआ
इस बार, न कोई कविता थी, न कहानी
न कोई राग, न नृत्य
न कोई कृति, न मूर्ति
वह बस झुका
झुकता, झुकता नतमस्तक हो चुका था
उसकी अनवरत अश्रुधारा
उसके पैरों पर बरस रही थी
उसने उसे ऊपर उठाया
और बाहुपाश में आबद्ध कर लिया
दोनों की अँसुवनधारा
एक हो चुकी थी ।
रचनाकाल : 11.05.2010