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"मुझे लग गया है / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर

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जो तुम्हें छोड़
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मेरे सीने में उतर आया है
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किसी गर्म शीशे या तेल की तरह
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शायद ऐसे--
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टप टप टप... ...
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ऐसा ही सुना था
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कि मृत्योपरांत
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शरीर से बहिष्कृत
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विषाणु-रोगाणु--
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किसी और शरीर में
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पलने चले जाते हैं,
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किसी भुतहे घर को
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छोड़-आए लोगों जैसे
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या रोटी के जले
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पर्त की तरह
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कितना अभेद्य था
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तुम्हारा हाड़-पिंजर!
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जिससे छनकर
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निथरकर
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बह गई सारी
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मांस-पेशियाँ,
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इच्छाओं और
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चाहों की रंगत,
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शिखरमान कल्पनाएं
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और जीवन की अल्पनाएं
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पर, वज्र की तरह ठोस
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यह निर्मम दर्द जोंक-सा
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थमा रहा
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तुम्हारे कंकाल में,
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चूसता रहा
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तुम्हारा रसीला भविष्य
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जब तक कि वह
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दर्द की तपिश से पिघलकर
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नि:शेष नहीं रह गया
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तुम्हारे बाद
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रोगाणुओं की तरह
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यह दर्द
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मुझे लग गया है,
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पुश्तैनी बीमारी की तरह
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मुझे डस गया है.

17:00, 21 जुलाई 2010 के समय का अवतरण


मुझे लग गया है

(स्वर्गस्थ मां को याद करते हुए)

कितने हाथों से थामूं यह दर्द
जो तुम्हें छोड़
मेरे सीने में उतर आया है
किसी गर्म शीशे या तेल की तरह
शायद ऐसे--
टप टप टप... ...

ऐसा ही सुना था
कि मृत्योपरांत
शरीर से बहिष्कृत
विषाणु-रोगाणु--
किसी और शरीर में
पलने चले जाते हैं,
किसी भुतहे घर को
छोड़-आए लोगों जैसे
या रोटी के जले
पर्त की तरह

कितना अभेद्य था
तुम्हारा हाड़-पिंजर!
जिससे छनकर
निथरकर
बह गई सारी
मांस-पेशियाँ,
इच्छाओं और
चाहों की रंगत,
शिखरमान कल्पनाएं
और जीवन की अल्पनाएं

पर, वज्र की तरह ठोस
यह निर्मम दर्द जोंक-सा
थमा रहा
तुम्हारे कंकाल में,
चूसता रहा
तुम्हारा रसीला भविष्य
जब तक कि वह
दर्द की तपिश से पिघलकर
नि:शेष नहीं रह गया

तुम्हारे बाद
रोगाणुओं की तरह
यह दर्द
मुझे लग गया है,
पुश्तैनी बीमारी की तरह
मुझे डस गया है.