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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : जो मिरा इक महबूब है<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : सड़कवासी राम!<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अरुणा राय]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[हरीश भादानी]]</td>
 
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जो मिरा इक महबूब है । मत पूछिए क्या ख़ूब है
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सड़कवासी राम!
आँखें उसकी काली हँसी, दो डग चले बस डूब है
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पकड़ उसकी सख़्त है  पर छूना उसका दूब है
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हैं पाँव उसके चंचल बहुत, रूकें तो पाहन बाख़ूब हैं
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जो मिरा इक महबूब है । मत पूछिए क्या ख़ूब है....
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न तेरा था कभी
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न तेरा है कहीं
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रास्तों दर रास्तों पर
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पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
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खोलकर
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मन के किवाड़े सुन
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सुन कि सपने की
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किसी सम्भावना तक में नहीं
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तेरा अयोध्या धाम।
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सड़कवासी राम!
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सोच के सिर मौर
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ये दसियों दसानन
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और लोहे की ये लंकाएँ
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कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
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खोजता थक
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बोलता ही जा भले तू
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कौन देखेगा
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सुनेगा कौन तुझको
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ये चितेरे
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आलमारी में रखे दिन
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और चिमनी से निकलती शाम।
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सड़कवासी राम!
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पोर घिस घिस
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क्या गिने चैदह बरस तू
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गिन सके तो
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कल्प साँसों के गिने जा
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गिन कि
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कितने काटकर फेंके गए हैं
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ऐषणाओं के पहरूए
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ये जटायु ही जटायु
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और कोई भी नहीं
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संकल्प का सौमित्र
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अपनी धड़कनों के साथ
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देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
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कर ली गई है
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इस शहर के जंगलों के नाम।
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सड़कवासी राम!
 
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17:37, 14 अगस्त 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : सड़कवासी राम!
  रचनाकार: हरीश भादानी
सड़कवासी राम!

न तेरा था कभी
न तेरा है कहीं
रास्तों दर रास्तों पर
पाँव के छापे लगाते ओ अहेरी
खोलकर
मन के किवाड़े सुन
सुन कि सपने की
किसी सम्भावना तक में नहीं
तेरा अयोध्या धाम।
सड़कवासी राम!

सोच के सिर मौर
ये दसियों दसानन
और लोहे की ये लंकाएँ
कहाँ है कैद तेरी कुम्भजा
खोजता थक
बोलता ही जा भले तू
कौन देखेगा
सुनेगा कौन तुझको
ये चितेरे
आलमारी में रखे दिन
और चिमनी से निकलती शाम।
सड़कवासी राम!

पोर घिस घिस
क्या गिने चैदह बरस तू
गिन सके तो
कल्प साँसों के गिने जा
गिन कि
कितने काटकर फेंके गए हैं
ऐषणाओं के पहरूए
ये जटायु ही जटायु
और कोई भी नहीं
संकल्प का सौमित्र
अपनी धड़कनों के साथ
देख वामन सी बड़ी यह जिन्दगी
कर ली गई है
इस शहर के जंगलों के नाम।
सड़कवासी राम!