"पत्थरों के शहर में / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार=ओम पुरोहित | + | |रचनाकार=ओम पुरोहित ‘कागद’ |
− | |संग्रह=धूप क्यों छेड़ती है / ओम पुरोहित | + | |संग्रह=धूप क्यों छेड़ती है / ओम पुरोहित ‘कागद’ |
}} | }} | ||
{{KKCatKavita}} | {{KKCatKavita}} |
12:40, 31 अगस्त 2010 का अवतरण
पत्थरों के शहर में
वो जो दूर पहाड़ी पर
बड़ा सा मंदिर है
उसका देवता
अपनी बेजान दृष्टि के लिए
हीरे की आंखे रखता है
पत्थर के ठोस पेट के लिए
हजारों मन चढ़ावा लेता है
फिर भी भूखा सोता है।
चांदी का छत्तर,
बिजली का पंखा,
चंदन की खड़ाऊ,
रत्न जड़ित रक्त वस्त्र,
सचिव सा पुजारी धारण कर
ऐंठा रहता है
किसी चोर द्वारा कुरेदी गई
अपनी आंख
सप्ताह भर में
वैसी ही पा लेता है।
उधर उन पांच कोठियों के पीछे,
कीचड़ के गढ्ढों के पास
जो टाट व सरकण्डे की झोपड़ी है,
उसमें सजीव किसनू रहता है।
आंख में आंसू,
पेट में भूख,
नंगे पांव,
चूती हूई छत,
आंधी के झौंके सह लेता है।
उसका नत्थू ;
आक को छेड़ते हुए अंधा हो लिया
डाक्टर के यहां
रोजाना लाइन में खड़ा हो
उम्र भर की कमाई खो
पत्थर की आंख भी नहीं ला पाया।
मांगने पर दुत्कारा गया।
पत्थरों के शहर में,
पत्थर की आंख के लिए मारा गया।
बस इतना सा अपवाद है,
वरना यहॉं पूरा समाजवाद है।