भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दबाव / त्रिलोचन" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }} {{KKCatKavita‎}} <poem> भी…)
 
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
<poem>
 
<poem>
 
भीड़ कस उठी थी, पच्चर से लोग बन गए,
 
भीड़ कस उठी थी, पच्चर से लोग बन गए,
वह दबाव था, जौ भर किअसी तरह हिल पाना
+
वह दबाव था, जौ भर किसी तरह हिल पाना
 
अब असाध्य था । खड़े लोग निरुपाय तन गए ।
 
अब असाध्य था । खड़े लोग निरुपाय तन गए ।
 
जो छूटा, छूटा; अब मुश्किल था मिल पाना ।
 
जो छूटा, छूटा; अब मुश्किल था मिल पाना ।

19:19, 22 जुलाई 2010 के समय का अवतरण

भीड़ कस उठी थी, पच्चर से लोग बन गए,
वह दबाव था, जौ भर किसी तरह हिल पाना
अब असाध्य था । खड़े लोग निरुपाय तन गए ।
जो छूटा, छूटा; अब मुश्किल था मिल पाना ।
आगे पीछे अगल बगल का बल झिल पाना
छाती के बस के बाहर था । लोग मर चले ।
जो प्रसून खिलने को थे, उनका खिल पाना
क्रूर काल को नहीं सुहाया, और झर चले ।
क्या करने आए थे क्या क्या असहाय कर चले,
धराधाम से गए । तीर्थ का यही फल मिला;
अपने घर की जगह विवश काल के घर चले;
कल्या चाहने वालों को कल नहीं छल मिला ।

भीड़भाड़ में सकल व्यक्तिबल खो जाता है,
महावीर भी तृण प्रवाह का हो जाता है ।