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"मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है / राजीव भरोल" के अवतरणों में अंतर

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जिस शजर पर तुम हमेशा फैंकते पत्‍थर रहे हो,
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मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है,
पास में उसके ही मेरा भी मकां है जानते हो.
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अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है.
  
सीख कर उड़ना न लौटे वो कभी वापस इधर फिर,
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इनायत उस मेहरबां की हुई रुक रुक के कुछ ऐसे,
अब हूं सूना घोंसला तो क्‍यों भला ना दुख मुझे हो.
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घने पेड़ों से छन छन कर सुबह ज्यों धूप आती है.
  
लड़ रहे हो आँधियों से जिस तरह लड़ते ही रहना,
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दिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी,
इस अंधेरी रात में अब तुम ही बस अंतिम दिये हो.
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बता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्‍यों आज़माती है.
  
छांव में बैठेंगे और पत्‍थर भी सब फैंकेगे तुम पर,
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रहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने,
पेड़ छायादार हो तुम और फलों से भी लदे हो.
+
करें क्‍या भूख आकर रोज़ कुण्‍डी खटखटाती है.
  
मैं भला क्‍यों कर डरूं अब राह की दुश्‍वारियों से,
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ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं से हैं जुड़े कितने,
जिंदगी के रास्‍ते में तुम जो अब रहबर मेरे हो.
+
पसीने में घुली मिटटी गले इनको लगाती है.
  
है डरा सहमा अंधेरा, वो बढ़े कैसे अब आगे,
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मुझे ही हो गई है तिश्‍नगी से दोस्‍ती वरना,
हाथ में दीपक लिये तुम बन के उजियारा खड़े हो.
+
कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है.
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जहाँ में माँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी,
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मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है.
 
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22:58, 5 अगस्त 2010 के समय का अवतरण


मेरी हिम्मत के पौधे को वो आकर सींच जाती है,
अकेला जान कर मुझको, हवा तेवर दिखाती है.

इनायत उस मेहरबां की हुई रुक रुक के कुछ ऐसे,
घने पेड़ों से छन छन कर सुबह ज्यों धूप आती है.

दिया हाथों में कासा और सीने में दी ख़ुद्दारी,
बता ऐ जिंदगी ऐसे भला क्‍यों आज़माती है.

रहन रख आये आखिर हम उसूलों के सभी गहने,
करें क्‍या भूख आकर रोज़ कुण्‍डी खटखटाती है.

ये पत्थर तोड़ते बच्चे ज़मीं से हैं जुड़े कितने,
पसीने में घुली मिटटी गले इनको लगाती है.

मुझे ही हो गई है तिश्‍नगी से दोस्‍ती वरना,
कोई बदली मेरी छत पर बरसने रोज़ आती है.

जहाँ में माँ की ममता से घनी और छांव क्या होगी,
मुझे पाला, मेरे बच्चों को भी लोरी सुनाती है.