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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : काजू भुनी पलेट में<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : पर आँखें नहीं भरीं<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अदम गोंडवी]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शिवमंगल सिंह ‘सुमन’]]</td>
 
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काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
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कितनी बार तुम्हें देखा
उतरा है रामराज विधायक निवास में
+
पर आँखें नहीं भरीं।
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पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
+
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में
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आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
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सीमित उर में चिर-असीम
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
+
सौंदर्य समा न सका
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बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
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मन रोके नहीं रुका
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यों तो कई बार पी-पीकर
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जी भर गया छका
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एक बूँद थी, किंतु,
 +
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
 +
कितनी बार तुम्हें देखा
 +
पर आँखें नहीं भरीं।
  
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
+
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
+
कण-कण में बिखरी
 
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मिलन साँझ की लाज सुनहरी
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
+
ऊषा बन निखरी,
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में
+
हाय, गूँथने के ही क्रम में
 +
कलिका खिली, झरी
 +
भर-भर हारी, किंतु रह गई
 +
रीती ही गगरी।
 +
कितनी बार तुम्हें देखा
 +
पर आँखें नहीं भरीं।
 
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00:31, 28 अगस्त 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : पर आँखें नहीं भरीं
  रचनाकार: शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं। 

सीमित उर में चिर-असीम 
सौंदर्य समा न सका 
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग 
मन रोके नहीं रुका 
यों तो कई बार पी-पीकर 
जी भर गया छका 
एक बूँद थी, किंतु, 
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। 
कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं। 

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी 
कण-कण में बिखरी 
मिलन साँझ की लाज सुनहरी 
ऊषा बन निखरी, 
हाय, गूँथने के ही क्रम में 
कलिका खिली, झरी 
भर-भर हारी, किंतु रह गई 
रीती ही गगरी। 
कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं।