"लाल किला / मनोज श्रीवास्तव" के अवतरणों में अंतर
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शोख शहंशाहों, शाहजादों को | शोख शहंशाहों, शाहजादों को | ||
+ | सत्ता की कुष्ठग्रस्त अंगुलियों जैसे | ||
+ | गल-गलकर गायब होते देखा है | ||
+ | और | ||
+ | समय के जीवाश्मों | ||
+ | रीति-रिवाजों के ढेरों | ||
+ | परम्पराओं-परिवर्तनों | ||
+ | सामाजिक उत्थापनों | ||
+ | फिजूल बादशाही सनकों | ||
+ | आदेशों-विधानों | ||
+ | आदि-आदि-आदि के | ||
+ | खँडहर कोदेखा है | ||
+ | लोकतंत्र में तब्दील होते हुए | ||
+ | जबकि लोकतंत्र-- | ||
+ | इस बूढ़े आर्यावर्त के | ||
+ | टीलेनुमा खँडहर का | ||
+ | सबसे ऊंचा टीला है | ||
+ | सूरज जिसे सबसे पहले | ||
+ | सुबह-सवेरे | ||
+ | शान से दमका जाता है | ||
+ | टीले का असली रूप दिखा जाता है. | ||
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+ | निर्जन टीला महिमा-मंडित होता है | ||
+ | टीले का इतिहास लिखा जाता है | ||
+ | टीले का जयकार-वंदन होता है | ||
+ | टीले का क़द नापा जाता है | ||
+ | उच्चादर्शों के रूप में | ||
+ | टीले के तहजीब-तौर दर्ज किए जाते हैं | ||
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+ | टीले की हिफाज़त की जाती है | ||
+ | उसके रक्षार्थ संविधान बनाया जाता है | ||
+ | और विह्वल जन | ||
+ | उसके भीमकाय क्रूर पदों पर | ||
+ | अपने सिर रखकर | ||
+ | उसका भजन-कीर्तन गाते हन | ||
+ | पूजा-अर्चना करते हैं | ||
+ | यज्ञ-हवन करते हैं | ||
+ | अपने बच्चों की बलि चढ़ाते हैं | ||
+ | अपने अजन्मे शिशुओं के लिए | ||
+ | मन्नतें मानते हैं | ||
+ | जबकि टीले का अंगरक्षक कानून-- | ||
+ | रक्तचूसक मक्खियों के रूप में | ||
+ | भव्य राष्ट्रीय त्योहारों के तहत शौक से | ||
+ | अपनी रक्तपिपासु सूड़ें | ||
+ | हमारे बदन में चुभो-चुभो | ||
+ | हमें सांत्वना देता है | ||
+ | अवश्यम्भावी हादसों से | ||
+ | अभयदान देता है | ||
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+ | मैं लालकिला हूँ | ||
+ | और अभी ज़िंदा रहूँगा | ||
+ | समय की बांहों में बाँहें डाल | ||
+ | चलता रहूँगा | ||
+ | जब तक पसीने की नस्ल कायम रहेगी | ||
+ | पसीने की खुशबू मुझमें समाई रहेगी | ||
+ | पसीना इंसानी मज़हब बना रहेगा | ||
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+ | मेरी ईंट-ईंट पसीनों में नहाई है | ||
+ | मुझ पर देश-बंधनों से मुक्त | ||
+ | मज़दूरों के नाम लिखे हैं पसीनों से, | ||
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+ | आदमी की पहचान पसीना है | ||
+ | पसीना सृजन और सिर्फ सृजन करता है | ||
+ | जब कलम और तलवार सार्थक जूझते हैं | ||
+ | पसीने अविरल बहते हैं | ||
+ | आदमी की जड़ें सींचते हैं | ||
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+ | पसीने से आदमी है | ||
+ | आदमी से समाज है | ||
+ | समाज से सभ्यता है | ||
+ | सभ्यता से संसार है | ||
+ | संसार से मैं हूँ-- | ||
+ | जूझता हुआ पसीने के दुश्मनों से | ||
+ | लड़ता हुआ रासायनिक प्रयोगों से | ||
+ | भागता हुआ रासायनिक समाज से | ||
+ | मात खाता हुआ रासायनिक विचारों से | ||
+ | इस रासयनिक ज़िबहखाने में | ||
+ | जब पसीना हलाल होगा | ||
+ | आदमी जात का | ||
+ | वहीं इंतकाल होगा | ||
+ | तब तक रासायनिक नस्ल | ||
+ | हृस्ट-पुष्ट हो चुकेगी | ||
+ | जिसके बदन से | ||
+ | दिल से | ||
+ | दिमाग से | ||
+ | सिर्फ रासायनिक तरल बहेंगे | ||
+ | जो पसीने वाली नस्ल को | ||
+ | श्रद्धांजलि देगी-- | ||
+ | मेरे निर्जीव मस्तक पर चढ़कर | ||
+ | बाकायदा झंडा फहराकर | ||
+ | पर्चे-इश्तेहार बांटकर |
17:02, 23 अगस्त 2010 के समय का अवतरण
लाल किला
कंकड़ीले काल-पथ पर खड़ा
कायान्तरण के दमनकारी झंझावात में
ऐतिहासिक होने पर अड़ा
मौलिकता का मोहताज़
मैं--एक मारियाल नपुंसक घोड़ा हूं
साल में एकाध बार
हिन्दुस्तानियत की जर्जर काठी डालकर
मुझ पर सवारी की जाती है
लोकतन्त्र की मुनादी की जाती है
यों तो, काल के दस्तावेज पर
मैं हूं--ऐतिहासिक हस्ताक्षर
जिसकी प्रामानिकता का जायज़ा लेने
अतीत खांस-खखार कर
दस्तक दे जाता है बार-बार--
मेरे जर्जर दरवाजे पर
और मैं अपना जिस्म उघार
दिखाता हूं उसे आर-पार
तो वह मेरी दुरावस्था पर
चला जाता है थूक कर
कबाड़ेदार महानगर में
एक क्षमतावान कूड़ादान हूं मैं
और मेरी नाक की सीध में
क्या नहीं बिकता?
बेशकीमती साज-सामान
कौड़ी के भाव इन्सान
और बहुरूपिये विदेशीपन के नाम पर ईमान,
यहां ढेरों लगती है दुकानें
जबकि टेढ़ी खीर है
क्रेता-विक्रेता की करनी पहचान
क्योंकि यहां ग्राहक भी
तिजारत करते हैं
जिस्म भी किचेनवेयर जैसे बिकते हैं
मेरी आँखों के नीचे
औरत-मर्द खड़े-खड़े
यान्त्रिक डिब्बों जैसे अटे-सटे
जिस अन्दाज में
सहवास कर लेते हैं
जानवर उसके लिए
सदियों से तरसते रहे हैं
अपनी दाढ़ के नीचे से
मैने शताब्दियाँ देखी हैं--
ठुमकते क्रीड़ारत बच्चों
ऐंठते-अकड़ते जवानों
बैसाखियाँ थामे बूढ़ों जैसे
गुजरते,गुजरते गुजरते हुए
और देखा है काल-वलय को
अपने चारो ओर
उमड़-घुमड़ परिक्रमा करते हुए
शोख शहंशाहों, शाहजादों को
सत्ता की कुष्ठग्रस्त अंगुलियों जैसे
गल-गलकर गायब होते देखा है
और
समय के जीवाश्मों
रीति-रिवाजों के ढेरों
परम्पराओं-परिवर्तनों
सामाजिक उत्थापनों
फिजूल बादशाही सनकों
आदेशों-विधानों
आदि-आदि-आदि के
खँडहर कोदेखा है
लोकतंत्र में तब्दील होते हुए
जबकि लोकतंत्र--
इस बूढ़े आर्यावर्त के
टीलेनुमा खँडहर का
सबसे ऊंचा टीला है
सूरज जिसे सबसे पहले
सुबह-सवेरे
शान से दमका जाता है
टीले का असली रूप दिखा जाता है.
निर्जन टीला महिमा-मंडित होता है
टीले का इतिहास लिखा जाता है
टीले का जयकार-वंदन होता है
टीले का क़द नापा जाता है
उच्चादर्शों के रूप में
टीले के तहजीब-तौर दर्ज किए जाते हैं
टीले की हिफाज़त की जाती है
उसके रक्षार्थ संविधान बनाया जाता है
और विह्वल जन
उसके भीमकाय क्रूर पदों पर
अपने सिर रखकर
उसका भजन-कीर्तन गाते हन
पूजा-अर्चना करते हैं
यज्ञ-हवन करते हैं
अपने बच्चों की बलि चढ़ाते हैं
अपने अजन्मे शिशुओं के लिए
मन्नतें मानते हैं
जबकि टीले का अंगरक्षक कानून--
रक्तचूसक मक्खियों के रूप में
भव्य राष्ट्रीय त्योहारों के तहत शौक से
अपनी रक्तपिपासु सूड़ें
हमारे बदन में चुभो-चुभो
हमें सांत्वना देता है
अवश्यम्भावी हादसों से
अभयदान देता है
मैं लालकिला हूँ
और अभी ज़िंदा रहूँगा
समय की बांहों में बाँहें डाल
चलता रहूँगा
जब तक पसीने की नस्ल कायम रहेगी
पसीने की खुशबू मुझमें समाई रहेगी
पसीना इंसानी मज़हब बना रहेगा
मेरी ईंट-ईंट पसीनों में नहाई है
मुझ पर देश-बंधनों से मुक्त
मज़दूरों के नाम लिखे हैं पसीनों से,
आदमी की पहचान पसीना है
पसीना सृजन और सिर्फ सृजन करता है
जब कलम और तलवार सार्थक जूझते हैं
पसीने अविरल बहते हैं
आदमी की जड़ें सींचते हैं
पसीने से आदमी है
आदमी से समाज है
समाज से सभ्यता है
सभ्यता से संसार है
संसार से मैं हूँ--
जूझता हुआ पसीने के दुश्मनों से
लड़ता हुआ रासायनिक प्रयोगों से
भागता हुआ रासायनिक समाज से
मात खाता हुआ रासायनिक विचारों से
इस रासयनिक ज़िबहखाने में
जब पसीना हलाल होगा
आदमी जात का
वहीं इंतकाल होगा
तब तक रासायनिक नस्ल
हृस्ट-पुष्ट हो चुकेगी
जिसके बदन से
दिल से
दिमाग से
सिर्फ रासायनिक तरल बहेंगे
जो पसीने वाली नस्ल को
श्रद्धांजलि देगी--
मेरे निर्जीव मस्तक पर चढ़कर
बाकायदा झंडा फहराकर
पर्चे-इश्तेहार बांटकर