भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मंज़िले मक़सूद / आदिल रशीद" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 14: पंक्ति 14:
 
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं  
 
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं  
 
क्यूँ हक बयानी<ref>सच बोलना</ref>  का सूली है आज भी ईनाम ?  
 
क्यूँ हक बयानी<ref>सच बोलना</ref>  का सूली है आज भी ईनाम ?  
क्यूँ लोग अपने घरों से निकालते डरते हैं ?
+
क्यूँ लोग अपने घरों से निकलते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती दम कलियाँ खिलने से पहले ?
+
क्यूँ तोड़ देती हें दम कलियाँ खिलने से पहले ?
 
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
 
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
 
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?  
 
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?  

23:46, 27 अगस्त 2010 के समय का अवतरण

स्वतंत्रता दिवस 1989 पर कही गई नज़्म मंज़िले मक़सूद । यह नज़्म 2 जुलाई 1989 को कही गई और प्रकाशित हुई । इस नज़्म को 14 अगस्त 1992 को रेडियो पाकिस्तान के एक मशहूर प्रोग्राम "स्टूडियो नम्बर 12" में मुमताज़ मेल्सी ने भी पढ़ा
  
समझ लिया था बस इक जंग जीत कर हमने
के हमने मंज़िल-ऐ-मक़सूद<ref>जिस मंज़िल की इच्छा थी</ref> पर क़दम रक्खे
जो ख़्वाब आँखों में पाले हुए थे मुद्दत से
वो ख़्वाब पूरा हुआ आई है चमन में बहार
मिरे दिमाग में लेकिन सवाल उठते हैं
क्यूँ हक बयानी<ref>सच बोलना</ref> का सूली है आज भी ईनाम ?
क्यूँ लोग अपने घरों से निकलते डरते हैं ?
क्यूँ तोड़ देती हें दम कलियाँ खिलने से पहले ?
क्यूँ पेट ख़ाली के ख़ाली हैं खूँ बहा कर भी ?
क्यूँ मोल मिटटी के अब इंतिकाम बिकता है?
क्यूँ आज बर्फ़ के खेतों में आग उगती है ?
अभी तो ऐसे सवालों से लड़नी है जंगें
अभी है दूर बहुत ,बहुत दूर मंज़िल-ऐ-मक़सूद

शब्दार्थ
<references/>