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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : पर आँखें नहीं भरीं<br>
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<td>&nbsp;&nbsp;'''शीर्षक : भारत का फ़िलीस्तीन<br>
&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[शिवमंगल सिंह ‘सुमन’]]</td>
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&nbsp;&nbsp;'''रचनाकार:''' [[अंजली]]</td>
 
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कितनी बार तुम्हें देखा
+
यह जगह क्या युद्ध स्थल है
पर आँखें नहीं भरीं।
+
या वध स्थल है
  
सीमित उर में चिर-असीम
+
सिर पर निशाना साधे सेना के इतने जवान
सौंदर्य समा न सका
+
इस स्थल पर क्यों हैं
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
+
क्या यह हमारा ही देश है
मन रोके नहीं रुका
+
या दुश्मन देश पर कब्जा है
यों तो कई बार पी-पीकर
+
जी भर गया छका
+
एक बूँद थी, किंतु,
+
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
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कितनी बार तुम्हें देखा
+
पर आँखें नहीं भरीं।
+
  
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
+
खून से लथपथ बच्चे महिलाएँ युवा बूढ़े
कण-कण में बिखरी
+
सब उठाये हुए हैं पत्थर
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
+
 
ऊषा बन निखरी,
+
इतना गुस्सा
हाय, गूँथने के ही क्रम में  
+
मौत के खिलाफ़ इतनी बदसलूकी
कलिका खिली, झरी
+
इस क़दर बेफिक्री
भर-भर हारी, किंतु रह गई
+
क्या यह फिलीस्तीन है
रीती ही गगरी।
+
या लौट आया है 1942 का मंज़र
कितनी बार तुम्हें देखा
+
 
पर आँखें नहीं भरीं।
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समय समाज के साथ पकता है
</pre>
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और समाज बड़ा होता है
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इंसानी जज़्बों के साथ
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उस मृत बच्चे की आँख की चमक देखो
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धरती की शक्ल बदल रही है
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वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर का समय बीत चुका है
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और तुम्हारे निपटा देने के तरीके से
 +
बन रहे हैं दलदल
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बन रही हैं गुप्त कब्रें
 +
और श्मशान घाट
 +
 
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आग और मिट्टी के इस खेल में  
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क्या दफ़्न हो पायेगा एक पूरा देश
 +
उस देश का पूरा जन
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या गुप्त फाइलों में छुपा ली जाएगी
 +
जन के देश होने की हक़ीक़त
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देश के आज़ाद होने की ललक
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व धरती के लहूलुहान होने की सूरत
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मैं किसी मक्के के खेत
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या ताल की मछलियों के बारे में नहीं
 +
कश्मीर की बात कर रहा हूँ
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जी हाँ, आज़ादी के आइने में देखते हुए
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इस समय कश्मीर की बात कर रहा हूँ </pre>
 
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20:26, 29 अगस्त 2010 का अवतरण

Lotus-48x48.png  सप्ताह की कविता   शीर्षक : भारत का फ़िलीस्तीन
  रचनाकार: अंजली
यह जगह क्या युद्ध स्थल है
या वध स्थल है

सिर पर निशाना साधे सेना के इतने जवान
इस स्थल पर क्यों हैं
क्या यह हमारा ही देश है
या दुश्मन देश पर कब्जा है

खून से लथपथ बच्चे महिलाएँ युवा बूढ़े 
सब उठाये हुए हैं पत्थर

इतना गुस्सा
मौत के खिलाफ़ इतनी बदसलूकी
इस क़दर बेफिक्री 
क्या यह फिलीस्तीन है
या लौट आया है 1942 का मंज़र

समय समाज के साथ पकता है
और समाज बड़ा होता है
इंसानी जज़्बों के साथ
उस मृत बच्चे की  आँख की चमक देखो 
धरती की शक्ल बदल रही है

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर का समय बीत चुका है
और तुम्हारे निपटा देने के तरीके से 
बन रहे हैं दलदल 
बन रही हैं गुप्त कब्रें
और श्मशान घाट 

आग और मिट्टी के इस खेल में 
क्या दफ़्न हो पायेगा एक पूरा देश
उस देश का पूरा जन 
या गुप्त फाइलों में छुपा ली जाएगी 
जन के देश होने की हक़ीक़त
देश के आज़ाद होने की ललक
व धरती के लहूलुहान होने की सूरत

मैं किसी मक्के के खेत
या ताल की मछलियों के बारे में नहीं
कश्मीर की बात कर रहा हूँ
जी हाँ, आज़ादी के आइने में देखते हुए
इस समय कश्मीर की बात कर रहा हूँ