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"पेड़ और भेड़ / ओम पुरोहित ‘कागद’" के अवतरणों में अंतर

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भूल कर
 
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पालने लगता हूं
 
पालने लगता हूं
वह स्वप्रघाती भेड़
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वह स्वप्नघाती भेड़
 
और फिर  
 
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कहीं भी
 
कहीं भी
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सम्भावनाओं तक में
 
सम्भावनाओं तक में
 
नहीं उग पाता
 
नहीं उग पाता
कोई साध पुरता
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कोई साध पूरता
 
मरियल सा भी
 
मरियल सा भी
हरियल सा भी
 
 
हरियल कोई पेड़।
 
हरियल कोई पेड़।
  
  
कौन बचना चाहिये
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कौन बचना चाहिए
 
पेड़ या भेड़?  
 
पेड़ या भेड़?  
 
यहीं सवाल
 
यहीं सवाल
 
मुझे कचोटता रहता है
 
मुझे कचोटता रहता है
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और
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भेड़ पेड़ को
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पेड़ मेरे भीतर को
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लगातार
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काटता रहता है।
 
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20:40, 30 अगस्त 2010 का अवतरण

जब भी
मेरी आंखों में उगते है
नन्हे-नन्हे
हरे-हरे पेड़
मेरे मन को
भीतरी कोने से आ
सब तहस-नहस कर डालती है
कमबख्त एक वहशी भेड़।

तब मैं
हरियाली के तमाम सपने
भूल कर
पालने लगता हूं
वह स्वप्नघाती भेड़
और फिर
कहीं भी
कभी भी
यहां तक कि
सम्भावनाओं तक में
नहीं उग पाता
कोई साध पूरता
मरियल सा भी
हरियल कोई पेड़।


कौन बचना चाहिए
पेड़ या भेड़?
यहीं सवाल
मुझे कचोटता रहता है
और
भेड़ पेड़ को
पेड़ मेरे भीतर को
लगातार
काटता रहता है।