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"होली / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर
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(नया पृष्ठ: <poem>होली/भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कैसी होरी खिलाई। आग तन-मन में लगाई…) |
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12:04, 14 सितम्बर 2010 का अवतरण
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥
तुन्हें कछु लाज न आई।
(भारतेन्दु जी की रचना ‘मुशायरा’ से)
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