"वार्ता:नवीन जोशी 'नवेंदु'" के अवतरणों में अंतर
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छन हात-खुटै | छन हात-खुटै | ||
लुली जूंल। | लुली जूंल। | ||
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+ | == तिनका == | ||
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+ | छूने से पहले | ||
+ | समझ लो इतना | ||
+ | मैं सरल-नाजुक | ||
+ | खाली ऐसा-वैसा | ||
+ | दांत से फंसा निकालने | ||
+ | कान को खुजलाने | ||
+ | अथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा | ||
+ | नहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं। | ||
+ | |||
+ | मैं सीढ़ी बन कर | ||
+ | (एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं | ||
+ | सूण्ड में घुस कर | ||
+ | हाथी को भी मार सकता हूं | ||
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+ | जो कान | ||
+ | सच नहीं सुनते- | ||
+ | उन्हें फोड़ सकता हूं। | ||
+ | जो आंखें | ||
+ | सबको बराबर नहीं देखतीं | ||
+ | उन्हें खोंच सकता हूं। | ||
+ | दो दंत पंक्तियां | ||
+ | अच्छी बातें नहीं बोलतीं | ||
+ | उन्हें लहूलुहान कर सकता हूं। | ||
+ | |||
+ | फिर तुम क्या हो ? | ||
+ | मेरे/सींक के | ||
+ | तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते। | ||
+ | और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो | ||
+ | फिर क्या ? | ||
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+ | लड़ोगे मुझ से ? | ||
+ | आओ कर लो दो-दो हाथ | ||
+ | पर कह देता हूं इतना | ||
+ | में सरल-नाजुक | ||
+ | नहीं..... | ||
+ | मैं हूं सींक/ तिनका। | ||
+ | |||
+ | मूल कुमाउनी कविता : सिणुंक | ||
+ | |||
+ | ठौक लगूंण है पैली | ||
+ | समझि लियो इतुक | ||
+ | मिं सितिल-पितिल | ||
+ | खालि उस-यस | ||
+ | दाड़ खचोरणीं, | ||
+ | कान खजूणीं, | ||
+ | कौ भड्यूणीं क्यड़ जस | ||
+ | नैं....कत्तई नैं। | ||
+ | |||
+ | मिं सिढ़ि बंणि | ||
+ | तुमा्र पुरखन कें | ||
+ | सरग पुजै सकूं, | ||
+ | सूंड में फैटि बेर | ||
+ | हा्थि कें लै फरकै सकूं, | ||
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+ | जो कान | ||
+ | सांचि न सुंणन- | ||
+ | फोड़ि सकूं, | ||
+ | जो आं्ख | ||
+ | बरोबर न द्यखन्- | ||
+ | खोचि सकूं, | ||
+ | जो दाड़ | ||
+ | भलि बात त बुलान- | ||
+ | ल्वयै सकूं। | ||
+ | |||
+ | फिरि तुमि कि छा ? | ||
+ | |||
+ | म्या्र/सिंणुका्क | ||
+ | टोड़ि बेर न करि सकना द्वि ! | ||
+ | हौर मिं | ||
+ | गढ़व जै बंणि जूंलौ... | ||
+ | फिरि कि ? | ||
+ | |||
+ | लड़ला मिं हुं ? | ||
+ | आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात | ||
+ | पर कै द्यूं इतुक | ||
+ | मिं सितिल-पितिल | ||
+ | नैं..... | ||
+ | मिं छुं सिणुंक। |
09:34, 21 सितम्बर 2010 का अवतरण
हाथ-पैर
शरीर में जान से अधिक जरूरी हो गई है गाड़ियों के पहियों में हवा! उनकी हवा निकल गई तो समझो मनुष्य की जिन्दगी ही रुक गई।
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों से खेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाज गाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घी जंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन को नमक के अतिरिक्त सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।
आज अनाज पैदा होता है-बनिये की दुकान पर सब्जी मण्डी में और दूध देती हैं थैलियां।
गाड़ी, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर के हाथों में आज हमारे हाथ-पैर ये रुक गऐ फूल जाते हैं हमारे हाथ-पैर आगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैर जिनके बिना हम हाथ-पैर होते हुऐ भी लूले लंगड़े हो जाऐंगे।
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´
आंग में ज्यान है ज्यादे जरूरी हैगे गा्ड़िक घ्वीरों में हा्व! उनरि सांस मुजि ग्येई.... समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे। आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंल खेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाज गोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यू बंण बै ल्यूंछी लाका्ड़, नूंण बका्य सब पैद करछी हात-खुटै।
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान में साग मण्डि में, दूद दीं थैलि।
गाड़ि, गैस, बिजुलि, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्क
हात में छन हमा्र हात-खुट
यं रुकि ग्या्या
फुलि जानीं हात-खुट
अघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुट
जना्र बिना हम
छन हात-खुटै
लुली जूंल।
हाथ-पैर
शरीर में जान से अधिक जरूरी हो गई है गाड़ियों के पहियों में हवा! उनकी हवा निकल गई तो समझो मनुश्य की जिन्दगी ही रुक गई।
पहले सभी काम-धंधे होते थे हाथ-पैरों से खेती-बाड़ी में पैदा किया जाता था अनाज गाय-बच्छियों को पाल-पोशकर मिलता था दूध-घी जंगल से लाते थे लकड़ियां ईंधन को नमक के अतिरिक्त सब कुछ हाथ-पांव ही पैदा करते थे।
आज अनाज पैदा होता है-बनिये की दुकान पर सब्जी मण्डी में और दूध देती हैं थैलियां।
गाड़ी, गैस, बिजली, पानी, टेलीफोन, कम्प्यूटर के हाथों में आज हमारे हाथ-पैर ये रुक गऐ फूल जाते हैं हमारे हाथ-पैर आगे न जाने क्या-क्या बनेंगे हमारे हाथ-पैर जिनके बिना हम हाथ-पैर होते हुऐ भी लूले लंगड़े हो जाऐंगे।
मूल कुमाउनी कविता `हात खुट´
आंग में ज्यान है ज्यादे जरूरी हैगे गा्ड़िक घ्वीरों में हा्व! उनरि सांस मुजि ग्येई.... समझो मैंसेकि ज्यूनि`ई थमि गे। आज मैंसा्क हात-खुट जै गा्ड़िक घ्वीर बंड़ि ग्येईं।
पैली सब काम धंध हुंछी हात-खुटोंल खेति-बाड़ि में पैद करी जांछी अनाज गोरु-बा्छ सैन्ति मिलछी दूद-घ्यू बंण बै ल्यूंछी लाका्ड़, नूंण बका्य सब पैद करछी हात-खुटै।
आज अनाज पैद हूं-बंणियैकि दुकान में साग मण्डि में, दूद दीं थैलि।
गाड़ि, गैस, बिजुलि, पांणि, टेलिफून, कम्प्यूटरा्क
हात में छन हमा्र हात-खुट
यं रुकि ग्या्या
फुलि जानीं हात-खुट
अघिल जांणि कि-कि बणांल हात-खुट
जना्र बिना हम
छन हात-खुटै
लुली जूंल।
तिनका
छूने से पहले समझ लो इतना मैं सरल-नाजुक खाली ऐसा-वैसा दांत से फंसा निकालने कान को खुजलाने अथवा कौऐ (बेकार की चीजों) को जलाने वाली पतली लकड़ियों जैसा नहीं हूं, बिल्कुल नहीं हूं।
मैं सीढ़ी बन कर (एक पौराणिक मान्यता के अनुसार) तुम्हारे पूर्वजों को स्वर्ग पहुंचा सकता हूं सूण्ड में घुस कर हाथी को भी मार सकता हूं
जो कान सच नहीं सुनते- उन्हें फोड़ सकता हूं। जो आंखें सबको बराबर नहीं देखतीं उन्हें खोंच सकता हूं। दो दंत पंक्तियां अच्छी बातें नहीं बोलतीं उन्हें लहूलुहान कर सकता हूं।
फिर तुम क्या हो ? मेरे/सींक के तोड़कर दो हिस्से नहीं कर सकते। और अगर में सींकों का गट्ठर जो बन जाऊंगा तो फिर क्या ?
लड़ोगे मुझ से ? आओ कर लो दो-दो हाथ पर कह देता हूं इतना में सरल-नाजुक नहीं..... मैं हूं सींक/ तिनका।
मूल कुमाउनी कविता : सिणुंक
ठौक लगूंण है पैली समझि लियो इतुक मिं सितिल-पितिल खालि उस-यस दाड़ खचोरणीं, कान खजूणीं, कौ भड्यूणीं क्यड़ जस नैं....कत्तई नैं।
मिं सिढ़ि बंणि तुमा्र पुरखन कें सरग पुजै सकूं, सूंड में फैटि बेर हा्थि कें लै फरकै सकूं,
जो कान सांचि न सुंणन- फोड़ि सकूं, जो आं्ख बरोबर न द्यखन्- खोचि सकूं, जो दाड़ भलि बात त बुलान- ल्वयै सकूं।
फिरि तुमि कि छा ?
म्या्र/सिंणुका्क टोड़ि बेर न करि सकना द्वि ! हौर मिं गढ़व जै बंणि जूंलौ... फिरि कि ?
लड़ला मिं हुं ? आ्ओ, करि ल्हिओ ओ द्वि-द्वि हात पर कै द्यूं इतुक मिं सितिल-पितिल नैं..... मिं छुं सिणुंक।