भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बैसाखी पर चलते लोग/ उदयप्रताप सिंह" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Bharat wasi (चर्चा | योगदान) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
+ | {{KKGlobal}} | ||
+ | {{KKRachna | ||
+ | |रचनाकार=उदयप्रताप सिंह | ||
+ | }} | ||
+ | {{KKCatKavita}} | ||
+ | <poem> | ||
इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग । | इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग । | ||
− | |||
फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग ! | फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग ! | ||
− | |||
प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया | प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया | ||
− | |||
सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग । | सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग । | ||
− | |||
आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन | आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन | ||
− | |||
दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग । | दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग । | ||
− | |||
हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो | हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो | ||
− | |||
हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग । | हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग । | ||
− | |||
हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी | हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी | ||
− | |||
दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग । | दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग । | ||
− | |||
औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते | औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते | ||
− | |||
यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग । | यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग । | ||
− | |||
कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात | कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात | ||
− | |||
वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग । | वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग । | ||
+ | </poem> |
22:20, 17 अक्टूबर 2010 का अवतरण
इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग ।
फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग !
प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया
सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग ।
आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन
दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग ।
हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो
हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग ।
हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी
दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग ।
औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते
यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग ।
कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात
वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग ।