भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दहककर जल चुके हैं / केदारनाथ अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=कुहकी कोयल खड़े पेड़ …)
 
पंक्ति 11: पंक्ति 11:
 
खेये चली जा रही है नावों का एक बेड़ा
 
खेये चली जा रही है नावों का एक बेड़ा
 
हरे हिंडोले की सरसराती हवा
 
हरे हिंडोले की सरसराती हवा
 +
उतार चुकी है नीले आसमान के जिस्म का
 +
छिलका
 +
और निकल आई है दमदमाती निरी सफेद धूप
 +
नारियल तोड़कर निकल आई हो जैसे सफेद गरी-
 +
कान फोड़ कोलाहल करते हैं,
 +
इर्द-गिर्द के लोग जैसे कनबहरे कठफोड़वा
 +
धान कूटती हैं ओखली में डाले हमें-
 +
छोकरी भावनाओं और विचारों की
 +
हमारी व्यथाएँ
 +
मौत से लड़ते हैं हमारे छन्द और गान के
 +
रंग-बिरंगे पखेरू
 +
फिर भी शंख फूँकते हैं हम अपने अटल इरादों के
 +
शोक के साथ-साथ हम हर्ष के समाचार
 +
छापते और बाँटते हैं।
  
 
+
'''रचनाकाल: १६-०६-१९६१'''
'''रचनाकाल: १३-०६-१९६१'''
+
 
</poem>
 
</poem>

15:49, 23 अक्टूबर 2010 का अवतरण

दहककर जल चुके हैं अंधकार के दिशाओं के किंवाड़े
आँख खोलकर निहारती है नरम पंखुरियों की सुंदर
सुकुमार सुबह
खेये चली जा रही है नावों का एक बेड़ा
हरे हिंडोले की सरसराती हवा
उतार चुकी है नीले आसमान के जिस्म का
छिलका
और निकल आई है दमदमाती निरी सफेद धूप
नारियल तोड़कर निकल आई हो जैसे सफेद गरी-
कान फोड़ कोलाहल करते हैं,
इर्द-गिर्द के लोग जैसे कनबहरे कठफोड़वा
धान कूटती हैं ओखली में डाले हमें-
छोकरी भावनाओं और विचारों की
हमारी व्यथाएँ
मौत से लड़ते हैं हमारे छन्द और गान के
रंग-बिरंगे पखेरू
फिर भी शंख फूँकते हैं हम अपने अटल इरादों के
शोक के साथ-साथ हम हर्ष के समाचार
छापते और बाँटते हैं।

रचनाकाल: १६-०६-१९६१