"सात मुक्तक / गिरिराज शरण अग्रवाल" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गिरिराज शरण अग्रवाल }} {{KKCatKavita}} <poem> '''1. मोह को घर-बार…) |
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 8: | पंक्ति 8: | ||
मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो | मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो | ||
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा | यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा | ||
− | + | सिर्फ़ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है | |
सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा | सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा | ||
'''2. | '''2. | ||
हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे | हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे | ||
− | + | ज़िंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा | |
दोस्त! कस-बल की नहीं, यह हौसले की बात है | दोस्त! कस-बल की नहीं, यह हौसले की बात है | ||
कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा | कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा | ||
पंक्ति 32: | पंक्ति 32: | ||
'''5. | '''5. | ||
आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है | आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है | ||
− | + | ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है | |
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात | एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात | ||
सुबह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है | सुबह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है | ||
पंक्ति 43: | पंक्ति 43: | ||
'''7. | '''7. | ||
− | + | असल परछाईं भी क्या है, उजाला सीख लेता है | |
ढलानों पर, रुका दरिया फ़िसलना सीख लेता है | ढलानों पर, रुका दरिया फ़िसलना सीख लेता है | ||
सुगंधित पत्र पाकर उसका मैं सोचा किया पहरों | सुगंधित पत्र पाकर उसका मैं सोचा किया पहरों | ||
मिले खुशबू तो कागज भी महकना सीख लेता है | मिले खुशबू तो कागज भी महकना सीख लेता है | ||
</poem> | </poem> |
12:03, 25 अक्टूबर 2010 का अवतरण
1.
मोह को घर-बार के मत साथ में लेकर चलो
यात्रा से जब भी लौटोगे तो घर आ जाएगा
सिर्फ़ साहस ही नहीं, धीरज भी तो दरकार है
सीढि़याँ चढ़ते रहो, अंतिम शिखर आ जाएगा
2.
हर दिशा से तीर बरसे, घाव भी लगते रहे
ज़िंदगी भर दिल मेरा आघात से लड़ता रहा
दोस्त! कस-बल की नहीं, यह हौसले की बात है
कितना छोटा था दिया, पर रात से लड़ता रहा
3.
यदि कभी अवसर मिले, दोनों का अंतर सोचना
दर्द सहना वीरता है, जुल्म सहना पाप है
स्वप्न में भी सावधानी शर्त है, जीना जो हो
जागती आँखें लिए निंद्रा में रहना पाप है
4.
बिजलियाँ कैसे बनी हैं बादलों से पूछिए
है समंदर का पता क्या बारिशों से पूछिए
छेद कितने कर दिए हैं रात के आकार में
दीपकों की नन्ही-नन्ही उँगलियों से पूछिए
5.
आदमी कठिनाइयों में जी न ले तो बात है
ज़िंदगी हर घाव अपना सी न ले तो बात है
एक उँगली भर की बाती और पर्वत जैसी रात
सुबह तक यह कालिमा को पी न ले तो बात है
6.
नाम चाहा न कभी भूल के शोहरत माँगी
हमने हर हाल में ख़ुश रहने की आदत माँगी
हो न हिम्मत तो है बेकार यह दौलत ताक़त
हमने भगवान से माँगी है तो हिम्मत माँगी
7.
असल परछाईं भी क्या है, उजाला सीख लेता है
ढलानों पर, रुका दरिया फ़िसलना सीख लेता है
सुगंधित पत्र पाकर उसका मैं सोचा किया पहरों
मिले खुशबू तो कागज भी महकना सीख लेता है