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− | + | मैं अकेला; | |
− | + | देखता हूँ, आ रही | |
+ | मेरे दिवस की सान्ध्य बेला । | ||
− | + | पके आधे बाल मेरे | |
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− | + | कोई नहीं भेला । | |
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− | + | भेला = पुराने ढंग की नाव | |
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23:35, 18 नवम्बर 2010 का अवतरण
सप्ताह की कविता | शीर्षक : मैं अकेला रचनाकार: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
मैं अकेला; देखता हूँ, आ रही मेरे दिवस की सान्ध्य बेला । पके आधे बाल मेरे हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मन्द होती आ रही, हट रहा मेला । जानता हूँ, नदी-झरने जो मुझे थे पार करने, कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख, कोई नहीं भेला । शब्दार्थ: भेला = पुराने ढंग की नाव