भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अभिमन्यु-2 / मंगत बादल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: <poem>रोज-रोज व्यूह भेदन के लिए निकलता है घर से अभिमन्यु- अपने ही अभाव…)
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
 +
{{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=मंगत बादल 
 +
}}{{KKAnthologyBasant}}
 +
[[Category:मूल राजस्थानी भाषा]]
 +
{{KKCatKavita‎}}
 
<poem>रोज-रोज
 
<poem>रोज-रोज
 
व्यूह भेदन के लिए
 
व्यूह भेदन के लिए

18:56, 28 मार्च 2011 का अवतरण

रोज-रोज
व्यूह भेदन के लिए
निकलता है घर से
अभिमन्यु-
अपने ही अभावों
पीड़ा व कुण्ठाओं से
त्रस्त हुआ
संकल्प करता है
महारथियों से जूझने का,
किन्तु दतर दर दतर
ठोकरें खाता हुआ
टपने सपनों के बल
यथार्थ को झुठलाता हुआ
लौट आता है संध्या को
अपने घर,
उस महाभारत को
लड़ते-लड़ते
जो उस पर थोंप दिया गया है
अभिमन्यु ने
जूझते-जूझते वीरगति पाई थी
लेकिन क्या वह
उसकी आखिरी लड़ाई थी,
नहीं, वह लड़ रहा है!
नहीं, वह और लड़ेगा!
जब तक
युद्धोन्मादी महारथियों का
उन्माद नहीं झड़ेगा!