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देव ! फूँक दो चिनगारी।
ऐसा दो वरदान, कला कोकुछ भी रहे अजेय नहीं,रजकण से ले पारिजात तककोई रूप अगेय नहीं। प्रथम खिली जो मघुर ज्योतिकविता बन तमसा-कूलों में जो हँसती आ रही युगों सेनभ-दीपों, वनफूलों में; सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकीविभा यहाँ फैलाते हैं,जिसके बुझे कणों को प कविअब ख्द्योत कहाते हैं; उसकी विभा प्रीप्त करेमेरे उर का कोना-कोना छू दे यदि लेखनी, धूल भीचमक उठे बनकर सोना॥ २३ दिसम्बर १९३३ ई. -दिनकर