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विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 28

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'''पद 271 से 280 तक'''
(276) कहा न कियो, कहाँ ल गयो, सीस कहि न नायो? राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो।1। आस -बिबस खास दाा ह्वै नीच प्रभुनि जनायो। हाहा करि दीनता कही द्वार -द्वार बार-बार, परी न छार, मुख बायो।2। असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो। महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो। नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो। साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचाायो।4। श्रवण-नयन-मृग मन लगे, सब थल पतितायो। मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो।5। दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो। तुलसी प्रभु नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरूदावली बुलायो।6। (277) श्राम राम राय! बिनु रावरे मेरे केा हितु साँचो? स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो।1। देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो। किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिचा काँचो। ‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी बापु! टापु ही बाँचो। हिये हेरि तुलसी लिखी, सेा सुभाय सही कहि बहुरि पूँछिये पाँचों।3। (278) पनव-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी।1। राज-द्वार भली सब कहै साधु-समीचीनकी। सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी।2। समय सँभारि सुधारिबी तुुलसी मलीनकी। प्रीति-रीति समुझाइबी रतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी।3।  (279) मारूति-मन, रूचि भरतकी लखि लषन कही है। कलिकालहु नाथ! नम सों परतीत प्रीति एक किंकरकी निबही है।1। सकल सभा सुति लै उठी, जानी रीति रही है। कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है।2। बिहंसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’। मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी, परी रधुनाथ/(रघुनाथ हाथ) सही है।3।
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