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'''पद 151 से 160 तक'''
तुलसी प्रभु (151) जेा पै चेराई रामकी करतो न लाजातो। तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो। जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो। बाजीगर के सूम ज्यों खल खेह न खातेा। जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो । सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो। राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो। काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो।। रामनाम अनुरागही जिय जो रतिआतो। स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो। सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो । जनम कोटिको काँदलो हृद-हृदय थिरातो। भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो। महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो। अमर -अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो। होतो मंगल -मूल तू, अनुकूल बिधातो। जो मन प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो। तुलसिदास रामप्रसादसों तिहुँताप नसातो।
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