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|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
लहूलुहान हुई है ये जिंदगी देखो
 
ज़रा-सी तुम मेरे ज़ख्मों की ताजगी देखो
 
कहीं पे सिर्फ़ दो लाशों के लिए ताजमहल
 
कहीं पे सैकडों लोगों की मुफलिसी देखो
 
बहार कैसी है कैसा है बाग़बा देखो
 
चमन में झूमते फूलों की खुदकशी देखो
 
मकान बन गए हैं फिर यहाँ पे घर सारे
 
जनाब टूटते रिश्तों में दिलकशी देखो
 
न जाने कब से ये चलती हैं कागजी बातें
 
मैं चाहता हूँ कि तुम आज सत्य भी देखो
 
सही-ग़लत को परख तो रहा है वो लेकिन
 
तुम उसके द्वार की कम होती रौशनी देखो
<Poem>
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