भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
<poem>
नज़र नज़र से ही टकराए टकराये और कुछ मत हो
कभी तो हमसे वो शरमाये, और कुछ मत हो
मिलो कहीं तो निगाहों से पूछ भर लेना
ज़रा-सा होंठ ही थर्राएथर्राये, और कुछ मत हो
मिली है एक ही जीवन में यह बहार की रात
बुला लिया है उसे घर पे हमने आज, मगर
मना रहे हैं नहीं आयेंआये, और कुछ मत हो
गुलाब देख तो लेंगे उन्हें आते-जाते
नज़र भले ही न मिल पाएपाये, और कुछ मत हो
<poem>
2,913
edits