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Kavita Kosh से
भूल मत तेरी भी औलाद बड़ी होगी कभी
तू बुज़ुर्गों को खरी-खोटी सुनाता क्यों है
वक़्त को कौन भला रोक सका है पगले
सूइयाँ घडियों की तू पीछे घुमाता क्यों है
प्यार के रूप हैं सब- त्याग, तपस्या, पूजा
इनमें अंतर का कोई प्रश्न उठाता क्यों है
जिसने तुझको कभी अपना नहीं समझा ऎ ’नाज़’
हर घड़ी उसके लिये अश्क बहाता क्यों है